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________________ स्थान ४: सूत्र ४५० ठाणं (स्थान) ४२० परस्स लाभमासाएमाणे पोहेमाणे परस्य लाभमास्वादयन् स्पृहयन् प्रार्थयन् । पत्थेमाणे° अभिलसमाणे मणं अभिलषन् मनः उच्चावचं नियच्छति, उच्चावयं णियच्छइ, विणिघात- विनिघातमापद्यते-द्वितीया दुःखशय्या। मावज्जति—दोच्चा दुहसेज्जा। ३. अहावरा तच्चा दुहसेज्जा... ३. अथापरा तृतीया दुःखशय्यासे णं मुंडे भवित्ता 'अगाराओ स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां अणगारियं पव्वइए दिव्वे प्रवजितः दिव्यान् मानुष्यकान् काममाणुस्सए कामभोगे आसाएइ भोगान् आस्वादयति स्पृह्यति प्रार्थयति •पोहेति पत्थेति अभिलसति, अभिलषति, दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसा- दिव्यान् मानुष्यकान् कामभोगान् एमाणे 'पोहेमाणे पत्थेमाणे आस्वादयन् स्पृहयन् प्रार्थयन् अभिलषन् अभिलसमाणे मणं उच्चावयं मनः उच्चावचं नियच्छति, विनिघातणियच्छति, विणिघातमावज्जति- मापद्यते—तृतीया दुःखशय्या । तच्चा दुहसेज्जा। ४. अहावरा चउत्था दुहसेज्जा- ४. अथापरा चतुर्थी दुःखशय्यासे णं मुंडे 'भवित्ता अगाराओ स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां अणगारियं पव्वइए, तस्स णं एवं प्रव्रजित:, तस्य एवं भवति—यदा अहं भवति-जया णं अहमगारवास- अगारवासमावसामि तदा अहं संबाधनमावसामि तदा णमहं संवाहण- परिमईन-गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्क्षालनानि परिमद्दण-गातभंग-गातुच्छोलणाइं लभे, यत्प्रभृति च अहं मुण्डो लभामि, जप्पभिई च णं अहं मुंडे भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः 'भवित्ता अगाराओ अणगारियं तत्प्रभृति च अहं संबाधन-परिमनपव्वइए तप्पभिई च णं अहं गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्क्षालनानि नो लभे। संवाहण- परिमद्दण-गातब्भंग - स संबाधन-परिमर्दन-गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्गातुच्छोलणाई णो लभामि। क्षालनानि आस्वादयति स्पृहयति से णं संवाहणं- परिमद्दण-गातभंग प्रार्थयति अभिलषति, गातुच्छोलणाई आसाएति पीहेति पत्थेति° अभिलसति, से णं संवाहण- परिमद्दण- स संबाधन-परिमर्दन-गात्राभ्यङ्ग-गात्रोत्गातभंग -गातुच्छोलणाई आसा- क्षालनानि आस्वादयन् स्पृहयन् प्रार्थयन् एमाणे पीहेमाणे पत्थेमाणे अभि- अभिलषन् मनः उच्चावचं नियच्छति, लसमाणे मणं उच्चावयं विनिघातमापद्यते-चतुर्थी दुःखशय्या। णियच्छति, विणिघातमावज्जतिचउत्था दुहसेज्जा। अभिलाषा करता है, वह दूसरे के लाभ का आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ, मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को प्राप्त होता है, ३. तीसरी दुःखशय्या यह है-कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित होकर देवताओं तथा मनुष्यों के काम-भोगों का आस्वादन करता है, स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है, वह उनका आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को प्राप्त होता है। ४. चौथी दुःखशय्या यह है-कोइ व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होने के बाद ऐसा सोचता है-जब मैं गृहवास में था संबाधन-मर्दन, परिमर्दन-उबटन, गात्राभ्यङ्ग-तेल आदि की मालिश, गात्रोत्क्षालन-स्नान आदि करता था पर जब से मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित हुआ हूं संबाधन, परिमर्दन, गावाभ्यङ्ग तथा गात्रोत्क्षालन नहीं कर पा रहा हूं, ऐसा सोचकर वह संबाधन, परिमर्दन, गात्राभ्यङ्ग तथा गात्रोत्क्षालन का आस्वाद करता है, स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है, वह संबाधन, परिमर्दन, गानाभ्यङ्ग तथा गात्रोत्क्षालन का आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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