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________________ ठाणं (स्थान) ३५६ स्थान ४ : सूत्र २६४-२६६ गरहा-पदं गर्हा-पदम् २६४. चउन्विहा गरहा पण्णत्ता, तं चतुर्विधा गर्दा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- जहा उवसंपद्ये इत्येका गर्दा, उवसंपज्जामित्तेगा गरहा, विचिकित्सामीत्येका गर्दा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, यत्किञ्चिदिच्छामीत्येका गर्दा, जंकिंचिमिच्छामित्तेगा गरहा, एवमपि प्रज्ञप्तका गरे । एवंपि पण्णत्तेगा गरहा। गर्हा-पद २६४. गर्दा चार प्रकार की होती है १. अपने दोष का निवेदन करने के लिए गुरु के पास जाऊं, इस प्रकार का विचार करना, २. अपने दोषों का प्रतिकार करूं उस प्रकार का विचार करना, ३. जो कुछ दोषाचरण किया वह मेरा कार्य मिथ्या हो-निष्फल हो, इस प्रकार कहना, ४. अपने दोष की गर्दा करने से भी उसकी शुद्धि होती है- ऐसा भगवान् ने कहा है इस प्रकार का चिन्तन करना। अलमंथु-पदं अलमस्तु-पदम् अलमस्तु-पद २६५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, २६५. पुरुष चार प्रकार के होते हैंजहातद्यथा १. कुछ पुरुष अपना निग्रह करने में समर्थ अप्पणो णाममेगे अलमंथू भवति, आत्मनः नामैक: अलमस्तु भवति, नो होते हैं, किन्तु दूसरे का निग्रह करने में जो परस्स, परस्य, समर्थ नहीं होते, २. कुछ पुरुष दूसरे का परस्स णाममेगे अलमंथू भवति, परस्य नामैक: अलमस्तु भवति, नो निग्रह करने में समर्थ होते हैं, किन्तु अपना णो अप्पणो, आत्मनः, निग्रह करने में नहीं, ३. कुछ पुरुष अपना एगे अप्पणोवि अलमंथू भवति, एक: आत्मनोऽपि अलमस्तु भवति, भी निग्रह करने में समर्थ होते हैं और परस्सवि, परस्यापि, दूसरे का भी निग्रह करने में समर्थ होते हैं, एगे णो अप्पणो अलमंथू भवति, एकः नो आत्मनः अलमस्तु भवति, ४. कुछ पुरुष न अपना निग्रह करने में णो परस्स। नो परस्य। समर्थ होते हैं और न दूसरे का निग्रह करने में समर्थ होते हैं। उज्जु-वंक-पदं ऋजु-वक्र-पदम् ऋजु-वक्र-पद २६६. चत्तारि मग्गा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः मार्गाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- २६६. मार्ग चार प्रकार के होते हैंउज्जू णाममेगे उज्जू, ऋजुः नामैकः ऋजुः, १. कुछ मार्ग ऋजु लगते हैं और ऋजु ही उज्जू णाममेगे वंके, ऋजुः नामैक: वक्र:, होते हैं, २. कुछ मार्ग ऋजु लगते हैं, किन्तु वंके णाममेगे उज्जू, वक्र: नामैकः ऋजः, वास्तव में वक्र होते हैं, ३. कुछ मार्ग वक्र वंके णाममेगे वंके। वक्र: नामैक: वक्र: । लगते हैं, किन्तु वास्तव में ऋजु होते हैं, ४. कुछ मार्ग वक्र लगते हैं और वक्र हो होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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