________________
ठाणं (स्थान)
गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षण उक्कोसेणं पच संवच्छराई। तेण पञ्च संवत्सराणि। तेन परं योनिः परं जोणी पमिलायति, 'तेण परं प्रम्लायति, तेन परं योनिः प्रविध्वंसते, जोणी पविद्धंसति, तेण परं जोणी तेन परं योनिः विध्वंसते, तेन परं बीज विद्धंसति, तेण परं बीए अबीए अबीजं भवति, तेन परं योनिव्यवच्छेदः भवति, तेण पर जोणीवोच्छेदे ।
प्रज्ञप्तः। पण्णत्ते।
__ स्थान ५ : सूत्र २१०-२१३ गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट पांच वर्ष । उसके बाद वह म्लान हो जाती है, विध्वस्त हो जाती है, क्षीण हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है और योनि का विच्छेद हो जाता है।
संवच्छर-पदं संवत्सर-पदम्
संवत्सर-पद २१०. पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २१०. संवत्सर पांच प्रकार का होता है१२२णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, नक्षत्रसंवत्सरः युगसंवत्सरः
१. नक्षत्रसंवत्सर, २. युगसंवत्सर, पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, प्रमाणसंवत्सर: लक्षणसंवत्सरः
३. प्रमाणसंवत्सर, ४. लक्षणसंवत्सर, सणिचरसंवच्छरे। शनैश्चरसंवत्सरः।
५. शनिश्चरसंवत्सर। २११. जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं युगसंवत्सरः पञ्चविध: प्रज्ञप्तः, २११. युगसंवत्सर पांच प्रकार का होता है १२९--- जहा.तद्यथा
१ चन्द्र, २. चन्द्र, ३. अभिवधित, चंदे, चंदे, अभिडिते, चन्द्रः, चन्द्रः, अभिवधितः, चन्द्र:, ४. चन्द्र, ५. अभिवधित ।
चंदे, अभिवड़िते चेव। अभिवधितः चैव। २१२. पमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, २१२. प्रमाणसंवत्सर पांच प्रकार का होता जहा
तद्यथाणक्खत्ते, चंदे, उऊ, आदिच्चे, नक्षत्रः, चन्द्रः, ऋतुः, आदित्यः, १. नक्षत्र, २. चन्द्र, ३. ऋतु, ४. आदित्य, अभिवट्टिते। अभिवधितः।
५. अभिवधित। २१३. लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, लक्षणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, २१३. लक्षणसंवत्सर पांच प्रकार का होता तद्यथा
१. नक्षत्र, २. चन्द्र, ३. कर्म [ऋतु] ४. आदित्य, ५. अभिवधित।
तं जहा
संगहणी-गाहा
संग्रहणी-गाथा १. समगं णक्खत्ताजोगं जोयंति, १. समकं नक्षत्राणियोगं योजयन्ति, समगं उदू परिणमंति। समकं ऋतव: परिणमन्ति । गच्चुण्हं णातिसीतो, नात्युष्णः नातिशीतः, बहूदओ होति णक्खत्तो॥ बहुउदक: भवति नक्षत्रः ।।
संग्रहणी-गाथा १. जिस संवत्सर में नक्षत्र समतयाअपनी तिथि का अतिवर्तन न करते हुए तिथियों के साथ योग करते हैं, ऋतुएं समतया-अपनी काल-मर्यादा के अनुसार परिणत होती है, न अति गर्मी होती है और न अति सर्दी तथा जिसमें पानी अधिक गिरता है, उसे नक्षत्रसंवत्सर कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org