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________________ ६०५ ठाणं (स्थान) स्थान ५ : सूत्र २०६-२०६ से चेव णं से एगि दिए एगिदियत्तं स चैव असौ एकेन्द्रियः एकेन्द्रियत्वं एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय शरीर को छोड़ता विप्पजहमाणे एगिदियत्ताए वा, विप्रजहत एकेन्द्रियतया वा, द्विन्द्रियतया हुआ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतु'बेइंदियत्ताए वा, तेइंदियत्ताए बा, वा, विन्द्रियतया वा, चतुरिन्द्रियतया रिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में जाता है। चरिदियत्ताए वा, पंचिदियत्ताए वा, पञ्चन्द्रियतया वा गच्छेत् । वा गच्छेज्जा। २०६. बेदिया पंचगतिया पंचागतिया द्वीन्द्रिया: पञ्चगतिकाः पञ्चागतिकाः २०६. इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों की इन्हीं पांच एवं चेव। एवं चैव। स्थानों में गति तथा इन्हीं पांच स्थानों से आगति होती है। २०७. एवं जाव पंचिदिया पंचगतिया एवं यावत पञ्चेन्द्रियाः पञ्चगतिकाः २०७. इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचागतिया पण्णता, तं जहा- पञ्चागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- पंचेन्द्रिय जीवों की भी इन्हीं पांच स्थानों पंचिदिए जाव गच्छेज्जा। पञ्चेन्द्रियः यावत् गच्छेत् । में गति तथा इन्हीं पांच स्थानों से आगति होती है। जीव-पदं जीव-पदम् जीव-पद २०८. पंचविधा सवजीवा पण्णत्ता, तं पञ्चविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, २०८. सब जीव पांच प्रकार के होते हैंजहातद्यथा १. क्रोधकषायी, २. मानकषायी, कोहकसाई, 'माणकसाई, क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, ३. मायाकषायी, ४. लोभकषायी, मायाकसाई, लोभकसाई, लोभकषायी, अकषायी। ५. अकषायी। अकसाई। अहवा... अथवा अथवापंचविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं पञ्चविधाः सर्वजीयाः प्रज्ञप्ताः, सब जीव पांच प्रकार के होते हैंजहातद्यथा १. नैरयिक, २. तिर्यञ्च, ३. मनुष्य, •णेरडया, तिरिक्खजोणिया, नैरयिकाः, तिर्यग्योनिकाः, मनुष्याः, ४. देव, ५. सिद्ध। मणुस्सा, देवा, सिद्धा। देवाः, सिद्धाः। जोणि-ठिइ-पदं योनि-स्थिति-पदम् योनि-स्थिति-पद २०६. अह भंते ! कल-मसूर-तिल-मुग्ग- अथ भन्ते ! कला-मसूर-तिल-मुद्ग- २०६. भगवन् ! मटर, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, मास-णिप्फाव-कुलत्थ-आलिसंदग- माष-निष्पाव-कुलत्थ-आलिसंदक- निष्पाव-सेम, कुलथी, चवला, तूवर तथा सतीण-पलिथगाणं एतेसि णं सतीणा-परिमन्थकानां—एतेषां धान्यानां काला चना-इन अन्नों को कोठे, पल्य, मचान और माल्य में डालकर उनके द्वारधण्णाणं कुट्ठाउत्ताणं पल्ताउत्ताणं कोष्ठागुप्तानां पल्यागुप्तानां मञ्चा देश को ढंक देने, लीप देने, चारों ओर से मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं गुप्तानां मालागुप्तानां अबलिप्तानां लीप देने, रेखाओ से लांछित्त कर देने, ओलिताणं लित्ताणं लंछियाणं लिप्तानां लाञ्छितानां मूद्रितानां मिट्टी से मुद्रित कर देने पर उनकी योनि मुदियाणं पिहिताणं केवइयं कालं पिहितानां कियन्तं कालं योनिः । [उत्पादक-शक्ति] कितने काल तक जोगी संचिट्ठति ? संतिष्ठते ? रहती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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