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________________ ori (स्थान) समणाणं णिग्गंथाणं किरिया क्रिया क्रियते ? कज्जति ? पुच्छति । से एवं वत्तव्वं सिया ? अकिच्चं दुक्खं, असं दुक्खं, अकज्ज माणकडे दुक्खं, अकट्टु अकट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेतित्ति वत्तव्वं । जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु । तत्थ जा सा कडा कज्जइ, णो तं पृच्छन्ति । पुच्छति । तत्थ जा सा कडा णो कज्जति, पृच्छन्ति । णतं पुच्छति । तत्थ जा सा अकडा णो कज्जति, पृच्छन्ति । जो तं पुच्छति । तत्र या सा अकृता क्रियते, तत् पृच्छन्ति । तत्थ जा सा अकडा कज्जति, तं तस्यैवं वक्तव्यं स्यात् ? अकृत्यं दुःखं, अस्पृष्टं दुःखं, अक्रियमाणकृतं दुःखं, अकृत्वा - अकृत्वा प्राणाः भूताः जीवाः सत्त्वाः वेदनां वेदयन्ति इति वक्तव्यम् । ये ते एवं अवोचन् मिथ्या ते एवं अवोचन् । अहं पुनः एवं आख्यामि एवं भाषे एवं प्रज्ञापयामि एवं प्ररूपयामि – कृत्यं दुःखं, स्पृष्टं दुःखं, क्रियमाणकृतं दुःखं, कृत्वा कृत्वा प्राणः भूताः जीवाः सत्त्वाः वेदनां वेदयन्ति इति वक्तव्यकं स्यात् । अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पण्णवेमि एवं परूवे किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्ज माणकडे दुक्खं, कट्ट-कट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंतित्ति वत्तव्वयं सिया । २१७ Jain Education International तत्र या सा कृता क्रियते, नो तत् तत्र या सा कृता नो क्रियते, नो तत् तत्र या सा अकृता नो क्रियते, नो तत् For Private & Personal Use Only स्थान ३ : सूत्र ३३७ प्ररूपण करते हैं कि क्रिया करने के विषय श्रमण-निर्ग्रन्थों का क्या अभिमत है ? जो की हुई होती है, उसका यहां प्रश्न नहीं है। जो की हुई नहीं होती, उसका भी यहां प्रश्न नहीं है। जो नहीं की हुई नहीं होती, उसका भी यहां प्रश्न नहीं है । किन्तु जो नहीं की हुई है, उसका यहां प्रश्न है। उनकी वक्तव्यता ऐसी है— १. दुःख अकृत्य है - आत्मा के द्वारा नहीं किया जाता, २ दुःख अस्पृश्य हैआत्मा से उसका स्पर्श नहीं होता, ३. दुःख अक्रियमाण-कृत है - वह आत्मा के द्वारा नहीं किए जाने पर होता है । उसे बिना किए ही प्राण भूत- जीव-सत्त्व उसका वेदन करते हैं। आयुष्मान ! श्रमणो ! जिन्होंने ऐसा कहा है उन्होंने मिथ्या कहा है। मैं ऐसा आख्यान करता हूं, भाषण करता हूं, प्रज्ञापन करता हूं, प्ररूपण करता हूं कि— दुःख कृत्य है- आत्मा के द्वारा किया जाता है। दुःख स्पृश्य है --- आत्मा से उसका स्पर्श होता है। दुःख क्रियमाण-कृत है - वह आत्मा के द्वारा किए जाने पर होता है। उसे कर-कर के ही प्राण भूत जीव सत्त्व उसका वेदन करते हैं। www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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