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________________ १,२ (सू०८, ६) टिप्पणियाँ स्थान- ७ पिंड - एषणाएं सात हैं १. संसृष्ट - देवस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना । २. असंसृष्ट-- देवस्तु से अलिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना । ३. उद्धृत - थाली, बटलोई आदि से परोसने के लिए निकालकर दूसरे बर्तन में डाला हुआ आहार लेना । ४. अल्पलेपिक - रूखा आहार लेना । ५. अवगृहीत - खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना । ६. प्रगृहीत- परोसने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना । ७. उज्झितधर्मा - जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना । पान- एषणा के प्रकार भी पिण्ड - एषणा के समान हैं। यहां अल्पलेपिक पानैषणा का अर्थ इस प्रकार है-काञ्जी, ओसामण, गरम जल चावलों का धोवन आदि अलेपकृत हैं और इक्षुरस, द्राक्षापानक, अम्लिका पानक आदि लेपकृत हैं।' ३. ( सू० १० ) Jain Education International अवग्रह प्रतिमा का अर्थ है-स्थान के लिए प्रतिज्ञा या संकल्प । वे सात हैं— १. मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूँगा दूसरे में नहीं । २. मैं दूसरे साधुओं के लिए स्थान की याचना करूंगा तथा दूसरों के द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह गच्छान्त साधुओं के होती है। ३. मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा, किन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूंगा। यह यथालन्दिक साधुओं के होती है। उन मुनियों के सूत्र का अध्ययन जो शेष रह जाता है उसे पूर्ण करने के लिए वे आचार्य से सम्बन्ध रखते हैं । इसलिए वे आचार्य के लिए स्थान की याचना करते हैं, किन्तु स्वयं दूसरे साधुओं द्वारा याचित स्थान में नहीं रहते। ४. मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूंगा, परन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में रहूंगा। यह जिनकल्प दशा का अभ्यास करने वाले साधुओं के होती है। ५. मैं अपने लिए स्थान की याचना करूंगा, दूसरों के लिए नहीं। यह जिनकल्पिक साधुओं के होती है । ६. जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा उसी के यहां पलाल आदि का संस्तारक प्राप्त 'तो लूंगा अन्यथा ऊकडू या कि आसन में बैठा-बैठा रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है। ७. जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा उसी के यहां सहज ही बिछे हुए सिलापट्ट या काष्ठपट्ट प्राप्त हो तो लूंगा, अन्यथा कडू या नैषयिक आसन में बैठा-बैठा रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है। १. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४४, वृत्ति पत्र २१५, २१६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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