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________________ ठाणं (स्थान) ५२८ स्थान ४ : टि० ११२ वर्गीकरण दूसरे स्थान में संग्रहीत है।' अनुयोगद्वार का वर्गीकरण यहां संग्रहीत है। प्रथम वर्गीकरण जैन परम्परानुसारी है और इस वर्गीकरण पर न्यायदर्शन का प्रभाव है। हेतु दो प्रकार के होते हैं-उपलब्धिहेतु (अस्तिहेतु) और अनुपलब्धिहेतु (नास्तिहेतु)। ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं। १. विधिसाधक उपलब्धिहेतु । २. निषेधसाधक उपलब्धिहेतु ।। १. निषेधसाधक अनुपलब्धिहेतु । २. विधिसाधक अनुपलब्धिहेतु। प्रमाणनयतत्त्वालोक के अनुसार इनका स्वरूप इस प्रकार है१. विधिसाधक उपलब्धिहेतु-विधिसाधक विधि हेतु-- साध्य से अविरुद्ध रूप में उपलब्ध होने के कारण जो हेतु साध्य की सत्ता को सिद्ध करता है, वह अविरुद्धोपलब्धि कहलाता है। अविरुद्ध उपलब्धि के छह प्रकार हैं-- १. अविरुद्ध-व्याप्य-उपलब्धिसाध्य-शब्द परिणामी है। हेतु-क्योंकि वह प्रयत्न-जन्य है। यहां प्रयत्न-जन्यत्व व्याप्य है। वह परिणामित्व से अविरुद्ध है। इसलिए प्रयत्नजन्यत्व से शब्द का परिणामित्व सिद्ध होता है। २. अविरुद्ध-कार्य उपलब्धिसाध्य—इस पर्वत पर अग्नि है। हेतु -क्योंकि धुआं है। धुआं अग्नि का कार्य है। वह अग्नि से अविरुद्ध है। इसलिए धूम-कार्य से पर्वत पर ही अग्नि की सिद्धि होती है। ३. अविरुद्ध-कारण-उपलब्धिसाध्य-वर्षा होगी। हेतु-क्योंकि विशिष्ट प्रकार के बादल मंडरा रहे हैं। बादलों की विशिष्ट-प्रकारता वर्षा का कारण है और उसका विरोधी नहीं है। ४. अविरुद्ध-पूर्वचर-उपलब्धिसाध्य---एक मुहर्त के बाद तिष्य नक्षत्र का उदय होगा। हेतु-क्योंकि पुनर्वसु का उदय हो चुका है। 'पुनर्वसु का उदय' यह हेतु 'तिष्योदय' साध्य का पूर्वचर है और उसका विरोधी नहीं है। ५. अविरुद्ध-उत्तरचर-उपलब्धिसाध्य–एक मुहर्त पहले पूर्वा-फाल्गुनी का उदय हुआ था। हेतु-क्योंकि उत्तर-फाल्गुनी का उदय हो चुका है। उत्तर-फाल्गुनी का उदय पूर्वा-फाल्गुनी के उदय का निश्चित उत्तरवर्ती है। ६. अविरुद्ध-सहचर-उपलब्धिसाध्य—इस आम में रूप-विशेष है। हेतु--क्योंकि रस-विशेष आस्वाद्यमान है। यहां रस (हेतु) रूप (साध्य) का नित्य सहचारी है। २. निषेध-साधक उपलब्धि-हेतु-निषेधसाधक विधिहेतु१. देखें-२१८६ का टिप्पण। २. न्यायदर्शन, १।१।३ : प्रत्यक्षनुमानोपमान शब्दाः प्रमाणानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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