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________________ ठाणं (स्थान) ५२६ स्थान ४ : टि० ११२ साध्य से विरुद्ध होने के कारण जो हेतु उसके अभाव को सिद्ध करता है, वह विरुद्धोपलब्धि कहलाता है। विरुद्धोपलब्धि के सात प्रकार हैं१. स्वभाव-विरुद्ध-उपलब्धिसाध्य.-.-सर्वथा एकान्त नहीं है। हेतु-क्योंकि अनेकान्त उपलब्ध हो रहा है। अनेकान्त-एकान्त स्वभाव के विरुद्ध है। २. विरुद्ध-व्याप्य-उपलब्धि साध्य इस पुरुष का तत्त्व में निश्चय नहीं है। हेतु --क्योंकि संदेह है। 'संदेह है' यह निश्चय नहीं है इसका व्याप्य है, इसलिए सन्देह-दशा में निश्चय का अभाव होगा। ये दोनों विरोधी हैं। ३. विरुद्ध-कार्य-उपलब्धिसाध्य—इस पुरुष का क्रोध शान्त नहीं हुआ है। हेतु-क्योंकि मुख-विकार हो रहा है। मुख-विकार क्रोध की विरोधी वस्तु का कार्य है। ४. विरुद्ध-कारण-उपलब्धिसाध्य—यह महर्षि असत्य नहीं बोलता। हेतु—क्योंकि इसका ज्ञान राग-द्वेष की कलुषता से रहित है। यहां असत्य-वचन का विरोधी सत्य-वचन है और उसका कारण राग-द्वेष रहित ज्ञान-सम्पन्न होना है। ५. अविरुद्ध-पूर्वचर-उपलब्धिसाध्य-एक मुहूर्त के पश्चात् पुष्य नक्षत्र का उदय नहीं होगा। हेतु—क्योंकि अभी रोहिणी का उदय है। यहां प्रतिषेध्य पुष्य नक्षत्र के उदय से विरुद्ध पूर्वचर रोहिणी नक्षत्र के उदय की उपलब्धि है। रोहिणी के पश्चात् मृगशीर्ष, आर्द्रा और पुनर्वसु का उदय होता है । फिर पुष्य का उदय होता है। ६. विरुद्ध-उत्तरचर-उपलब्धिसाध्य--एक मुहूर्त के पहले मृगशिरा का उदय नहीं हुआ था। हेतु- क्योंकि अभी पूर्वा-फाल्गुनी का उदय है। यहां मृगशीर्ष का उदय प्रतिषेध्य है । पूर्वा-फाल्गुनी का उदय उसका विरोधी है । मृगशिरा के पश्चात् क्रमशः आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा और पूर्वा-फाल्गुनी का उदय होता है। ७. विरुद्ध-सहचर-उपलब्धिसाध्य---इसे मिथ्या ज्ञान नहीं है। हेतु-क्योंकि सम्यग्दर्शन है। मिथ्या ज्ञान और सम्यग्दर्शन एक साथ नहीं रह सकते। १. निषेध-साधक-अनुपलब्धि-हेतु-निषेध-साधक निषेधहेतु-. प्रतिषेध्य से अविरुद्ध होने के कारण जो हेतु उसका प्रतिषेध्य सिद्ध करता है, वह अविरुद्धानुपलब्धि कहलाता है अविरुद्धानुपलब्धि के सात प्रकार हैं १. अविरुद्ध-स्वभाव-अनुपलब्धिसाध्य—यहां घट नहीं है। हेतु-क्योंकि उसका दृश्य स्वभाव उपलब्ध नहीं हो रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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