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________________ ठाणं (स्थान) ५२७ स्थान ४ : टि० ११२ "पहा स्थापक--- साध्य को शीघ्र स्थापित करने वाला हेतु । वृत्तिकार ने इसके समर्थन में एक लोक के मध्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है. एक धूर्त परिव्राजक लोगों से कहता कि लोक के मध्य भाग में देने से अधिक फल होता है, और लोक का मध्य मैं ही जानता हूं । गांव-गांव में जाता और हर गांव में लोक का मध्य स्थापित कर लोगों को ठगता। इस प्रकार माया से अपना काम बनाता। एक गांव में एक श्रावक ने पूछा--लोक का मध्य एक ही होता है, गांवगांव में नहीं होता। इस प्रकार उसकी असत्यता को पकड़ लिया और कहा—तुम्हारे द्वारा बताया गया लोक का मध्य मध्य नहीं है। यहां अग्नि है, धुआं होने के कारण इस धूम हेतु से साध्य अग्नि का ज्ञान शीघ्र हो जाता है। दूसरा पक्ष-वस्तु नित्यानित्य है, द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से । उसी प्रकार प्रतीत द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। व्यंसक.--. जो हेतु दूसरे को व्यामूढ बना देता है, उसे व्यंसक कहा जाता है। एक व्यक्ति अनाज से भरी गाड़ी लेकर नगर में प्रवेश कर रहा था। रास्ते में उसे एक मरी हुई तित्तरी मिली। उसने उसे गाड़ी पर रख दिया। नगर में एक धूर्त मिला। उसने गाड़ीवान से पूछा-'शकट-तित्तरी कितने में दोगे? गाड़ीवान् ने सोचा कि यह गाड़ी पर रखी हुई तित्तरी का मोल पूछ रहा है। उसने कहा----तर्पणालोडित सत्तुओं के मोल पर इसे दूंगा।' उस धूर्त ने दो-चार व्यक्तियों को साक्षी रखा और सत्तुओं के मोल पर तित्तरी सहित गाड़ी लेकर चलने लगा। गाड़ीवान ने प्रतिषेध किया। धूर्त ने कहा-इसने शकट-तित्तरी बेची है । अतः गाड़ी सहित तित्तरी मेरी होती है। गाड़ीवान विषण्ण हो गया। यहां 'शकट-तित्तरी' यह व्यंसक दूसरों को भ्रम में डालने वाला हेतु है। लूषक व्यंसक हेतु के द्वारा आपादित दूषण का उसी प्रकार के हेतु से निराकरण करना । शाकटिक ने धूर्त से कहा-मुझे तर्पणालोडित सत्तू दो। वह धूर्त उसे घर ले गया और अपनी भार्या से कहा--- इसे सत्तु आलोडित कर दो। वह वैसा करने लगी। तब शाकटिक उस स्त्री का हाथ पकड़कर उसे ले जाने लगा। धूर्त ने प्रतिरोध किया। शाकटिक ने कहा-मैंने शकट-तित्तरी तर्पणालोडित सत्तुओं के मोल बेची थी। मैं उसे ही ले जा रहा हूं। तू ने ही ऐसा कहा था। धूर्त अवाक रह गया । शाकटिक द्वारा दिया गया हेतु लूषक था। इस हेतु ने उसे धूर्त के हेतु को नष्ट कर दिया। ११२ (सू० ५०४) प्रस्तुत सूत्र में हेतु शब्द का दो अर्थों में प्रयोग किया गया है१. प्रमाण २. अनुमानांग—जिसके बिना साध्य की सिद्धि निश्चित रूप से न हो सके, वैसा साधन । यह अनुमान-प्रमाण का एक अंग है। प्रस्तुत सूत्र के तीन अनुच्छेद हैं। तीसरे अनुच्छेद में अनुमानांग हेतु प्रतिपादित है। प्रथम अनुच्छेद में वाद-काल में प्रयुक्त किए जाने वाले हेतु का वर्गीकरण है। द्वितीय अनुच्छेद में प्रमाण का निरूपण है। ज्ञेय के बोध में ज्ञान ही साधकतम होता है। उसी का नाम प्रमाण है । ज्ञान साधकतम होता है, इसीलिए उसे हेतु (साधन-वचन) कहा गया है। आगम-साहित्य में प्रमाण के दो वर्गीकरण प्राप्त होते हैं—एक नंदी का और दूसरा अनुयोगद्वार का । नंदी का २. प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, ११२-४ । १. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, ३१११ : निश्चितान्यथानुपत्त्येकलक्षणो हेतु : । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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