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________________ ठाणं (स्थान) ७१७ स्थान ७: सूत्र ३-४ पासई सुहुमेणं वायुकाएणं फुडं पोग्ग- कायेन स्फुटं पुद्गलकार्य एजमानं व्येजमान सूक्ष्म वायु [मन्द वायु] के स्पर्श से पुद्लकायं एयंत वेयंतं चलंत खुब्भंतं चलन्त क्षुभ्यन्तं स्पन्दमानं घट्टयन्तं गल-काय [पुद्गल राशि] को कम्पित फंदतं घट्टतं उदीरतं तं तं भावं उदीरयन्तं तं तं भावं परिणमन्तम् । तस्य होते हुए विशेष रूप से कम्पित होते हुए, परिणमंत । तस्स णं एवं भवति– एवं भवति—अस्ति मम अतिशेषं ज्ञान चलित होते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पंदित होते हुए, दूसरे पदार्थों का स्पर्श करते हुए, अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे दर्शनं समुत्पन्नम् ...सर्वे एते जीवाः । दूसरे पदार्थों को प्रेरित करते हुए, विविध समुप्पण्णे-सव्वमिणं जीवा। सन्त्येकके श्रमणा वा माहना वा एव प्रकार के पर्यायों में परिणत होते हुए देखता संतेगइया समणा वा माहणा वा माहुः-जीवाश्चैव अजीवाश्चैव। ये है। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न एवमाहंसु-जीवा चेव अजीवा ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः । तस्य होता है -..."मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन चेव । जे ते एवमासु, मिच्छं ते इमे चत्वारः जीवनिकायाः नो सम्यग्- प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूं किये एवमाहंसु । तस्स णं इमे चत्तारि उपगता भवन्ति, तद्यथा... सभी जीव ही जीव हैं। जीवणिकाया णो सम्ममुवगता पृथिवीकायिकाः, अपकायिकाः, कुछ श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव भी हैं और अजीव भी हैं। जो भवंति, तं जहातेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः । ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। पूढ विकाइया, आउकाइया, इतिएतैः चतुभिः जीवनिकायैः मिथ्या उस विभंगज्ञानी को पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाइया, वाउकाइया। दण्ड प्रवर्तयति-- तेजस्काय और वायुकाय --इन चार जीवइच्चेतेहि चहि जीवणिकाहिं सप्तमं विभङ्गज्ञानम् । निकायों का सम्यग् ज्ञान नहीं होता। वह मिच्छादंड पवत्तेइ इन चार जीवनिकायों पर मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है-यह सातवां विभंगसत्तमे विभंगणाणे। ज्ञान है। जोणिसंगह-पदं योनिसंग्रह--पदम् योनिसंग्रह-पद ३. सत्तविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं सप्तविधः योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ३. योनि-संग्रह के सात प्रकार हैंजहा अण्डजाः, पोतजाः, जरायुजाः, रसजाः, १. अण्डज, २. पोतज, ३. जरायुज, अंडजा, पोतजा, जराउजा, रसजा, संस्वेदजाः, सम्मूच्छिमाः, उद्भिज्जाः।। ४. रसज, ५. संस्वेदज, ६. सम्मूच्छिम, संसेयगा, समुच्छिमा, उब्भिगा। ७. उद्भिज्ज। गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम् गति-आगति-पद ४. अंडगा सत्तगतिया सत्तागतिया अण्डजा: सप्तगतिका: सप्तागतिकाः ४. अण्डज जीवों की सात गति और सात पण्णता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- आगति होती है.- अंडगे अंडगेसु उववज्जमाणे अंड- अण्डजः अण्डजेषु उपपद्यमानः जो जीव अण्डजयोनि में उत्पन्न होता है गेहितो वा, पोतहितो वा, अण्डजेभ्यो वा पोतजेभ्यो वा जरायु- वह अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, 'जराउहितो वा, रसहिंतो वा, जेभ्यो वा रसजेभ्यो वा संस्वेदजेभ्यो वा संस्वेदज, सम्मूच्छिम और उद्भिज्जसंसेयरोहितो वा, सम्मच्छिमेहितो सम्मूच्छिमेभ्यो वा उद्भिज्जेभ्यो वा इन सातों योनियों से आता है। वा, उभिगेहितो वा उववज्जेज्जा। उपपद्येत । जो जीव अण्डजयोनि को छोड़कर दुसरी सच्चेव णं से अंडए अंडगत्तं स चैव असौ अण्डजः अण्डजत्वं विप्र- योनि में जाता है वह अण्डज, पोतज, विप्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, जहत अण्डजतया वा पोतजतया जराघुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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