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________________ ठाणं (स्थान) ७६७ स्थान ८ : सूत्र १६-२२ १६. अहि ठाहिं संपण्णे अणगारे अष्टभिः स्थानः सम्पन्नः अनगारः अर्हति १६. आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने अरिहति अत्तदोसमालोइत्तए, तं आत्मदोषं आलोचयितुम्, तद्यथा- दोषों की आलोचना करने के लिए योग्य जहा होता है-- जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, विणय- जातिसम्पन्नः, कुलसम्पन्नः, विनय- १. जाति सम्पन्न, २. कुल सम्पन्न, संपण्णे, णाणसंपण्णे, सणसंपण्ण, सम्पन्नः, ज्ञानसम्पन्नः, दर्शनसम्पन्नः, ३. विनय सम्पन्न, ४. ज्ञान सम्पन्न, चरित्तसंपण्णे, खते, दंते। चरित्रसम्पन्न:, क्षान्तः, दान्तः । ५. दर्शन सम्पन्न, ६. चरित्र सम्पन्न, ७. क्षान्त, ६. दान्त। पायच्छित्त-पदं प्रायश्चित्त-पदम् प्रायश्चित्त-पद २०. अट्टविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं अष्टविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम, २०. प्रायश्चित्त आठ प्रकार का होता है १. आलोचना के योग्य, जहातद्यथा २. प्रतिक्रमण के योग्य, आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, आलोचनाह, प्रतिक्रमणाह, ३. आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों के तदुभयारिहे, विवेगारिहे, तदुभयाई, विवेकाह, व्युत्सर्गाह, योग्य, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, तपोर्ह, छेदार्ह, मूलाहम्। ४. विवेक के योग्य, मूलारिहे। ५. व्युत्सर्ग के योग्य, ६. तप के योग्य, ७. छेद के योग्य, ८. मूल के योग्य । मट्ठाण-पदं मदस्थान-पदम् मदस्थान-पद २१. अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा- अष्ट मदस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २१. मद" के स्थान आठ हैं --- जातिमए, कुलमए, बलमए, जातिमदः, कुलमदः, बलमदः, १. जातिमद, २. कुलमद, ३. बलमद, रूवमए, तवमए,सुतमए, लाभमए, रूपमदः, तपोमदः, श्रुतमदः, लाभमदः, ४. रूपमद, ५. तपोमद, ६. श्रुतमद, इस्सरियमए। ऐश्वर्यमदः । ७. लाभमद, ८. ऐश्वर्यमद। अकिरियावादि-पदं अक्रियावादि-पदम् अक्रियावादि-पद २२. अट्ट अकिरियावाई पण्णत्ता, तं जहा- अष्ट अक्रियावादिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २२. अक्रियावादी" आठ हैंएगावाई, अणेगावाई, मितवाई, एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, १. एकवादी-एक ही तत्त्व को स्वीकार करने वाले, २. अनेकवादी--धर्म और णिम्मितवाई, सायवाई, निर्मितवादी, सातवादी, समुच्छेदवादी, धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने वाले अथवा समुच्छेदवाई, णितावाई, णसंतपर- नित्यवादी, असत्परलोकवादी । सकल पदार्थों को विलक्षण मानने वाले, एकत्व को सर्वथा अस्वीकार लोगवाई। करने वाले, ३. मितवादी-जीवों को परिमित मानने वाले, ४. निमितवादीईश्वरकर्तृत्ववादी, ५. सातवादी–सुख से ही सुख की प्राप्ति मानने वाले, सुखवादी, ६. समुच्छेदवादी-क्षणिकवादी। ७. नित्यवादी-लोक को एकान्त मानने वाले, ८. असत्परलोकवादीपरलोक में विश्वास न करने वाले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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