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प्रकाशकीय
'ठाणं तृतीय अंग है। जैनों के द्वादशाङ्गों में विषय की दृष्टि से इसका बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामान्य गणना से इसमें कम-से-कम १२०० विषयों का वर्गीकरण है; भेद-प्रभेद की दृष्टि से इसके द्वारा लाखों विषयों की ओर दष्टि जाती है।
'ठाणं' में विषय-सामग्री दस स्थानों में विभक्त है। प्रथम स्थान में संख्या में एक-एक विषयों की सूची है। दूसरे स्थान में दो-दो विषयों का संकलन है। तीसरे में संख्या में तीन-तीन विषयों की परिगणना है। इस तरह उत्तरोत्तर क्रम से दसवें स्थान में दस-दस तक के विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इस एक अङ्ग का परिशीलन कर लेने पर हजारों विविध प्रतिपाद्यों के भेद-प्रभेदों का गंभीर ज्ञान प्राप्त हो जाता है। व्यापकता की दृष्टि से इसका विषय ज्ञान के अनगिनत विविध पहलुओं का स्पर्श करता है। भारतीय ज्ञान-गरिमा और सौष्ठव का इससे बड़ा अच्छा परिचय प्राप्त होता है।
इस अंग की प्रतिपादन शैली का बौद्ध पिटक अंगुत्तर निकाय में अनुकरण देखा जाता है। इसके परिशीलन से ठाणं के अनेक विषयों का स्पष्टीकरण होता है।
विज्ञान के एक विद्यार्थी के नाते यह कहने में जरा भी हिचकिचाहट का बोध नहीं होता कि इस अंग में वस्तु-तत्त्व के प्रांगण में ऐसे अनेक सार्वभौम सिद्धान्तों का संकलन है जो आधुनिक विज्ञान जगत में मूलभूत सिद्धान्तों के रूप में स्वीकृत हैं।
हर ज्ञान-पिपासु और अभिसन्धित्सु व्यक्ति के लिए यह अत्यन्त हर्ष का ही विषय होगा कि ज्ञान का एक विशाल सपुट संशोधित मूल पाठ, संस्कृत छायानुवाद एवं प्रांजल हिन्दी अनुवाद और विस्तृत टिप्पणों से अलंकृत होकर उनके सम्मुख उपस्थित हो रहा है। जैन विश्व भारती ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के प्रकाशन का सौभाग्य प्राप्त कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करती है।
परम श्रद्धेय आचार्य श्री तुलसी एवं उनके इंगित-आकार पर सब कुछ नयौछावर कर देने के लिए प्रस्तुत मुनिवृन्द की यह समवेत उपलब्धि आगमों के हिन्दी रूपान्तरण के क्षेत्र में युग-कृति है। बहुमुखी प्रवृत्तियों के केन्द्र तपोमूर्ति आचार्य श्री तुलसी ज्ञान-क्षितिज के देदीप्यमान् सूर्य है और उनका मुनि-मण्डल ज्योतिर्मय नक्षत्रों का प्रकाशपुंज, यह श्रमसाध्य प्रस्तुतीकरण से अपने-आप स्पष्ट है।
आचार्यश्री ने विविध पहलुओं से आगम-सम्पादन के कार्य को हाथ में लेने की घोषणा २०११ की चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को की। इसके पूर्व ही श्रीचरणों में विनम्र निवेदन रहा-आपके तत्वावधान में आगमों का सम्पादन और अनुवाद हो-यह भारत के सांस्कृतिक अनुवाद की एक मूल्यवान कड़ी के रूप में अपेक्षित है। यह एक अत्यन्त स्थायी कार्य होगा, जिसका लाभ एक-दो-तीन नहीं, अचिन्त्य भावी पीढ़ियों को प्राप्त होता रहेगा।
मुझे हर्ष है कि आगम ग्रन्थों के ऐसे प्रकाशनों के साथ मेरी मनोकामना फलवती हो रही है।
मुनि श्री नथमलजी तेरापंथ संघ और आचार्य श्री तुलसी के अप्रतिम मेधावी श्रमण और शिष्य हैं। उनका श्रम पद-पद पर मुखरित हो रहा है। आचार्य श्री तुलसी की दीर्घ पैनी दृष्टि और नेतृत्व एवं मुनि श्री नथमल जी की सृष्टि
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