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ठाणं (स्थान)
२. से णं मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचहि महत्वहिं णिस्सकिए णिक्कंखिए ● णिव्विति गिच्छिते णो भेदसमा वण्णे णो कलुससमावण्णे पंच महव्वताइं सद्दहति पत्तियति ति से परि अभिजुंजियअभिजुंजिय अभिभवइ, जो तं परिस्सहा अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवंति ।
३. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाहिं णिस्संकिते • णिक्कंखिते निव्विति गिच्छिते णो भेदसमा वणे णो कलुससमावणे छ जीवfuary सद्दहति पत्तियति रोएति, से परिस्सहे अभिजुंजियअभिजुंजिय अभिभवंति । णो तं परिसहा अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवति ।
पुढवी- वलय-पदं
५२५. एगमेगाणं पुढवी तिहि वलएहि सबओ समता संपरिक्खित्ता, तं जहा - घणोदधिवलएणं,
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कलुष
२. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः सन् पञ्चसु महाव्रतेषु निःशङ्कितः निष्काङ्क्षितः निर्विचिकित्सितः नो भेदसमापन्नः नो समापन्नः पञ्च महाव्रतानि श्रद्धत्ते प्रत्येति रोचयति, स परीषहान् अभियुज्य अभियुज्य अभिभवति, नो तं परीषहाः अभियुज्य अभियुज्य अभिभवन्ति ।
३. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः षट्सु afrat निःशङ्कितः निष्काङ्क्षितः निर्विचिकित्सितः नो भेदसमापन्नः नो कलुषसमापन्नः पड़ जीवनिकायान् श्रद्धत्ते प्रत्येति रोचयति, स परीषहान् अभियुज्य अभियुज्य अभिभवति, नो तं परीषहाः अभियुज्य अभियुज्य अभिभवन्ति ।
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पृथिवी - वलय-पदम्
एकैका पृथिवी त्रिभिः वलयैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता, तद्यथा— धनोदधिवलयेन, घनवातवलयेन,
घणवातवरणं, तणुवायबलएणं । तनुवात वलयेन ।
farmers-पदं
विग्रह-गति-पदम्
नैरयिका:
५२६. रयाणं उक्कोसेणं तिसमइएणं विग्गणं उववज्जति । एगिदियवज्जं जाव वैमाणियाणं । एकेन्द्रियवर्ज यावत् वैमानिकानाम् ।
विग्रहेण उत्पद्यन्ते ।
स्थान ३ : सूत्र ५२५-५२६ २. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर पांच महाव्रतों में निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सित, अभेदसमापन्न और अकलुषसमापन्न होकर पांच महाव्रतों में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है । वह परीषहों से जूझ- जूझकर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह जूझ- जूझकर अभिभूत नहीं कर पाते।
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३. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर छः जीव निकायों में निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सित अभेदसमापन और अकलुष समापन्न हो कर छः जीव निकायों में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है, वह परीषहों से जूझ - जूझकर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह जूझ - जूझकर अभिभूत नहीं कर पाते।
पृथ्वी वलय-पद
५२५. सभी पृथ्वियां तीन वलयों से सर्वतः परिक्षिप्त ( घिरी हुई ) हैं -
१. घनोदधि वलय से,
२. घनवात वलय से,
३. तनुवात वलय से ।
विग्रह-गति-पद
उत्कर्षेण विसामयिकेन ५२६. एकेन्द्रिय को छोड़कर नरयिकों से वैमानिक देवों तक के सभी दण्डकों के जीव उत्कृष्ट रूप में तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं ।
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