SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (स्थान) आरंभिया चेव, परिगहिया चेव । १५. आरंभिया पण्णत्ता, तं जहा जीवआरंभिया चेव, ३८ आरम्भिकी चैव, पारिग्रहिकी चैव । किरिया दुविहा आरम्भिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाजीवारम्भिकी चैव, अजीवआरंभिया चेव । ❤ १६. पारिग्गहिया किरिया दुविहा पारिग्रहिकी क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा पण्णत्ता, तं जहाजीवपारिगहिया चेव, जीवपरिग्रहिकी चैव, अजीवारिगहिया चेव । अजीवपारिग्रहिकी चैव । १७. दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं द्वे क्रिये, प्रज्ञप्ते, तद्यथा जहाँमायावत्तिया चेव, मायाप्रत्यया चैव, अजीवारम्भिकी चैव । मिच्छादंसणवत्तिया चेव । मिथ्यादर्शनप्रत्यया चैव । १८. मायावत्तिया किरिया दुविहा मायाप्रत्यया क्रिया द्विविधा प्रज्ञप्ता, पण्णत्ता, तं जहा आयभाववकणता चेव, तद्यथाआत्मभाववत्रता चैव, परभाववंकणता चेव । Jain Education International परभाववक्रता चैव । प्रज्ञप्ता, तद्यथाऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया चैव, स्थान २: सूत्र १५-१६ For Private & Personal Use Only आरंभिकी- उपमर्दन की प्रवृत्ति । पारिग्रहिकी परिग्रह में प्रवृत्ति" । १५. आरंभिकी क्रिया दो प्रकार की है- - जीव- आरंभिकी— जीव के उपमर्दन की प्रवृत्ति । अजीव - आरंभिक -- जीवकलेवर, जीवा कृति आदि के उपमर्दन की प्रवृत्ति" । १६. पारिग्रहिकी क्रिया दो प्रकार की है— आत्मभाव वञ्चना--- अप्रशस्त आत्मभाव को प्रशस्त प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति । परभाव वञ्चना —— कूटलेख आदि के द्वारा दूसरों को छलने की प्रवृत्ति । १६. मिच्छादंसणवत्तया किरिया दुविहा मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया द्विविधा १६. मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की पण्णत्ता, तं जहा ऊणाइरियमिच्छादंसणवत्तिया चेव, जीवपारिग्रहिकी - सजीव परिग्रह में प्रवृत्ति | अजीवपारिग्रहिकी - निर्जीव परिग्रह में प्रवृत्ति । १७. क्रिया दो प्रकार की है मायाप्रत्यया - माया से होनेवाली प्रवृत्ति | मिथ्यादर्शनप्रत्यया - मिथ्यादर्शन होनेवाली प्रवृत्ति" । १८. मायाप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की है है— ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शनप्रत्यया - जिसमें तत्त्व के स्वरूप का न्यून या अधिक स्वीकार हो, जैसे शरीरव्यापी आत्मा को अंगुष्ठ प्रभाव या सर्वव्यापी स्वीकार करना । www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy