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________________ ठाणं (स्थान) ४५६ स्थान ४ : सूत्र ५६८-५७१ ५६८. चहि ठाणेहि जीवा आभि- चतुभिः स्थानः जीवा आभियोगतया कर्म ५६८. चार स्थानों से जीव आभियोगित्व-कर्म ओगत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- प्रकुर्वन्ति, तद्यथा का अर्जन करता हैअत्तुक्कोसेणं, परपरिवाएणं, आत्मोत्कर्षेण, परपरिवादेन, भूतिकर्मणा, १. आत्मोत्कर्ष ---आत्म-गुणों का अभिभूतिकम्भेणं, कोउयकरणेणं। कौतुककरणेन । मान करने से, २. पर-परिवाद- दूसरों का अवर्णवाद बोलने से, ३. भूतिकर्मभस्म, लेप आदि के द्वारा चिकित्सा करने से, ४. कौतुककरण-मंत्रित जल से स्नान कराने से ।१२८ ५६६. चहि ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताए चतुर्भिः स्थानैः जीवा: सम्मोहतया कर्म ५६९. चार स्थानों से जीव सम्मोहत्व-कर्म का कम्मं पगरेति, तं जहा- प्रकुर्वन्ति, तद्यथा अर्जन करता हैउम्मग्गदेसणाए, मग्गंतराएणं, उन्मार्गदेशनया, मार्गान्तरायण, कामा- १. उन्मार्ग देशना-मिथ्या धर्म का कामासंसपओगेणं, भिज्जाणियाण- शंसाप्रयोगेण, भिध्यानिदानकरणेन । प्ररूपण करने से, २. मार्गान्तराय--मोक्ष करणेणं । मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए विघ्न उत्पन्न करने से, ३. कामाशंसाप्रयोगशब्दादि विषयों में अभिलाषा करने से, ४. मिथ्यानिदानकरण-गृद्धि-पूर्वक निदान करने से ।१२९ ५७०. चउहि ठाणेहिं जीवा देवकिब्बि- चतुभिः स्थानः जीवा देवकिल्बिषिकतया ५७०. चार स्थानों से जीव देव-किल्विषिकत्व सियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा कर्म का अर्जन करता है-- अरहताणं अवण्णं वदमाणे, अर्हतां अवर्णं वदन्, १. अर्हन्तों का अवर्णवाद बोलन से, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवणं अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अवर्ण वदन्, २. अर्हन्त प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद बोलने वदमाणे, आयरियउवज्झायाण- आचार्योपाध्याययोः अवर्ण वदन्, से, ३. आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णमवणं वदमाणे, चाउवण्णस्स चतुर्वर्णस्य संघस्य अवर्ण वदन् । वाद बोलने से, ४. चतुर्विध संघ का संघस्स अवण्णं वदमाणे। अवर्णवाद बोलने से ।१० प्रव्रज्या -पद ५७१. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है पव्वज्जा-पदं प्रव्रज्या-पदम् ५७१. चउन्विहा पन्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तयथा- जहाइहलोगपडिबद्धा, परलोगोडबद्धा, इहलोकप्रतिबद्धा, परलोकप्रतिबद्धा, दहतोलोगपडिबद्धा, अप्पडिबद्धा। द्वयलोकप्रतिबद्धा, अप्रतिबद्धा। १. इहलोक प्रतिबद्धा-इस जन्म की सुख कामना से ली जाने वाली, २. परलोक प्रतिबद्धा--परलोक की सुख कामना से ली जाने वाली, ३. उभयलोक प्रतिबद्धादोनों लोकों की सुख कामना से ली जाने वाली, ४. अप्रतिबद्धा-इहलोक आदि के प्रतिबंध से रहित। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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