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________________ सत्तमं ठाणं मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद गणावक्कमण-पदं गणापक्रमण-पदम् १. सत्तविहे गणावक्कमणे पण्णत्ते, तं सप्तविधं गणापक्रमणं प्रज्ञप्तम्, जहा तद्यथासव्वधम्मा रोएमि। सर्वधर्मान रोचयामि। एगइया रोएमि, एककान् रोचयामि, एगइया णो रोएमि। एककान् नो रोचयामि। सव्वधम्मा वितिगिच्छामि । सर्वधर्मान् विचिकित्सामि। एगइया वितिगिच्छामि, एककान् विचिकित्सामि, एगइया णो वितिगिच्छामि। एककान् नो विचिकित्सामि। सव्वधम्मा जुहुणामि। सर्वधर्मान् जुहोमि। एगइया जुहुणामि, एककान् जुहोमि, एगइया णो जुहुणामि। एककान् नो जुहोमि । इच्छामि णं भंते ! एगल्लविहार- इच्छामि भदन्त ! एकाकिविहारपडिमं उबसंपिज्जत्ता णं प्रतिमां उपसंपद्य विहर्तुम् । विहरित्तए। गणापक्रमण-पद १. सात कारणों से गण से अपक्रमण किया जा सकता है१. सब धर्मों [श्रुत व चारित्र के प्रकारों] में मेरी रुचि है। यहां उनकी पुति के साधन नहीं हैं। इसलिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। २. कुछेक धर्मों में मेरी रुचि है और कुछेक धर्मों में मेरी रुचि नहीं है। जिनमें मेरी रुचि है उनकी पूर्ति के साधन यहां नहीं हैं। इसलिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। ३. सब धर्मों के प्रति मेरा संशय है । संशय को दूर करने के लिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूँ। ४. कुछेक धर्मों के प्रति मेरा संशय है और कुछेक धमों के प्रति मेरा संशय नहीं है। संशय को दूर करने के लिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। ५. मैं सब धर्मों को दूसरों को देना चाहता हं । इस गण में कोई योग्य व्यक्ति नहीं है जिसे कि मैं सब धर्म दे सकू। इसलिए भंते ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता है। ६. मैं कुछेक धर्मों को दूसरों को देना चाहता हूं और कुछेक धर्मों को नहीं देना चाहता। इस गण में कोई योग्य व्यक्ति नहीं है जिसे कि मैं जो देना चाहता हूं वह दे सकू। इसलिए भंते! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूं और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूं। ७. भंते ! मैं ‘एकलविहार प्रतिमा' को स्वीकार कर विहरण करना चाहता हूं। इसलिए इस गण से अपक्रमण करता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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