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________________ ठाणं (स्थान) ७१२ स्थान ७ : आमुख दण्डनीति का विकास इस बात का सूचक है कि मनुष्य जितना स्वयं-शासित होता है, दण्ड का प्रयोग उतना ही कम होता है। और आत्मानुशासन जितना कम होता है, दण्ड का प्रयोग उतना ही बढ़ता है। याज्ञवल्क्यस्मृति में भी धिग्दण्ड का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार दण्ड के चार प्रकार हैं धिग्दण्ड-धिक्कार युक्त वचनों द्वारा बुरे मार्ग पर जाने से रोकना। वाग्दण्ड-कठोर वचनों के द्वारा अपराध करने वाले व्यक्ति को वैसा न करने की शिक्षा देना। धनदण्ड-पंसे का दण्ड । बार-बार अपराध न करने के लिए निषेध करने पर भी न माने तब धन के रूप में जो दण्ड दिया जाता है, उसे धनदण्ड कहते हैं। वधदण्ड---अनेक बार समझाने पर जब अपराधी अपने स्वभाव को नहीं बदलता, तब उसे वध करने का दण्ड दिया जाता है। मनुष्य अनेक शक्तियों का पुञ्ज है। उसमें विवेक है, चिंतन है। उसके पास भावाभिव्यक्ति के लिए भाषा का सशक्त माध्यम भी है। वह प्रारम्भ में अपने भावों को कुछेक शब्दों में अभिव्यक्त करता था, किन्तु विकसित अवस्था में उसकी भाषा विकसित हो गई और उसने अभिव्यक्ति में सौन्दर्य लाने का प्रयत्न किया। उस प्रयत्न में गद्य और पद्य शैली का विकास हुआ। लौकिक ग्रन्थों में उसकी विशद चर्चा मिलती है। काव्यशास्त्र और संगीत शास्त्र की दीर्घकालीन परम्परा है । सूत्रकार ने हेय और उपादेय की मीमांसा के साथ-साथ ज्ञेय विषयों का संकलन भी किया है। स्वर-मण्डल उसका एक उदाहरण है। इस संग्रह सूत्र में अन्यान्य विषयों का जहां नाम-निर्देश है वहां स्वर-मंडल का विशद वर्णन मिलता है। प्रस्तुत स्थान सात की संख्या से सम्बन्धित है। इसमें जीव-विज्ञान, लोक-स्थिति संस्थान, गोत्र, नय, आसन, पर्वत, चक्रवर्तीरत्न, दुषमाकाल की पहचान, सुषमाकाल की पहचान, संयम-असंयम, आरंभ, धान्य की स्थिति का समय, देवपद, समुद्घात, प्रवचन-निण्हव, नक्षत्र, विनय के प्रकार, इतिहास और भूगोल-सम्बन्धी अनेक विषय संकलित हैं। १. याज्ञवल्क्यस्मृति, आचाराध्याय, राजधर्म, श्लोक ३६७ । धिग्दण्डस्त्वथ वाग्दण्डो, धनदण्डो वधस्तथा योज्या व्यस्ताः समस्ता था, ह्यपराधवशादिमे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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