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आमुख
साधना व्यक्तिगत होती है, फिर भी कुछ कारणों से उसे सामुदायिकरूप दिया गया। इस कार्य में जैन तीर्थंकरों का महत्वपूर्ण योगदान है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना सम्यकप से करने के लिए साधु संघ का सदस्य होता है। संघ में अनेक गण होते हैं। जिस गण में साधु रहता है उसकी व्यवस्था का पालन वह निष्ठा के साथ करता है। जब उसे यह अनुभूति होने लग जाय कि इस गण में रहने से मेरा विकास नहीं होता तो वह गण परिवर्तन के लिए स्वतन्त्र होता है। साधना की भूमिका के परिपक्व होने पर वह एकाकी रहने की स्वीकृति भी प्राप्त कर सकता है। प्रस्तुत स्थान में गणपरिवर्तन के साथ हेतु बतलाए गए हैं।
साधना का सूत्र है अभय । भगवान् महावीर ने कहा--जो भय को नहीं जानता और नहीं छोड़ता वह अहिंसक नहीं हो सकता, सत्यवादी और अपरिग्ररही भी नहीं हो सकता। भय का प्रवेश तब होता है जब व्यक्ति दूसरे से अपने को हीन मानता है। मनुष्य को मनुष्य से भय होता है, यह इहलोक भय है। मनुष्य को पशु आदि से भय होता है, यह परलोक भय है। धन आदि पदार्थों के अपहरण का भय होता है। मृत्यु का भय होता है। पीड़ा या रोग का भय होता है। अपयश का भय होता है।
अहिंसा के आचार्यों ने अभय को महत्वपूर्ण स्थान दिया। राजनीति के मनीषी भय की भी उपयोगिता स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि दण्ड-भय के बिना समाज नहीं चल सकता। प्रस्तुत आगम में विविध विषय संकलित हैं, इसलिए इसमें भय और दण्ड के प्रकार भी प्रतिपादित हैं। दण्डनीति के सात प्रकार बतलाए गए हैं, इनमें उनके क्रमिक विकास का इतिहास है। प्रथम कुलकर विमलवाहन के समय में हाकार नीति का प्रयोग शुरू हुआ। उस समय कोई अपराध करता उन्हें "हा! तूने ऐसा किया" यह कहा जाता। यह उनके लिए महान दण्ड होता। वे स्वयं अनुशासित और लज्जाशील थे। यह दण्ड नीति दूसरे कुलकर के समय तक चली। तीसरे कुलकर यशस्वी और चौथे कुलकर अभिचन्द्र के समय में दो दण्ड नीतियों का प्रयोग होने लगा। सामान्य अपराध के लिए हाकार और बड़े अपराध के लिए माकारनीति (मत करो) का प्रयोग किया जाता था। पांचवें प्रसेनजित, छटै मरुदेव और सातवें नाभि कुलकर के समय में तीन दण्डनीतियां प्रचलित थीं। छोटे अपराध के लिए हाकार मध्यम अपराध के लिए माकार और बड़े अपराध के लिए धिक्कार की नीति का प्रयोग किया जाता था। उस समय तक मनुष्य ऋजु, मर्यादा-प्रिय और स्वयंशासित थे। जैसे-जैसे समाज व्यवस्था विकसित होती गई स्वयं का अनुशासन कम होता गया, वैसे-वैसे सामाजिक दण्ड का भी विकास होता गया। राज्य की स्थापना के साथ अनेक दण्ड प्रचलित हो गए, जैसे
परिभाषक-थोड़े समय के लिए नजरबंद करना-क्रोधपूर्ण शब्दों में अपराधी को 'यहीं बैठ जाओ' ऐसा आदेश देना।
मंडलिबंध-नजरबंद करना-नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना। चारक-कैद में डालना। छविच्छेद---हाथ पैर आदि काटना।'
१७१। २.७।२७। ३. ७४०.४३।
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