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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५ : सूत्र १७४ से समासओ पंचविधे पण्णते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः,
संक्षेप में वह पांच प्रकार का है-- जहा
तद्यथादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालत:, भावत:,
१. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा,
३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, भावओ, गुणओ। गुणतः।
५. गुण की अपेक्षा। दबओ णं जीवत्यिकाए अणंताई द्रव्यतः जीवास्तिकायः अनन्तानि द्रव्य की अपेक्षा-अनन्त द्रव्य है। दवाई।
द्रव्याणि। खेत्तओ लोगपमाणमेते। क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः।
क्षेत्र की अपेक्षा-लोकप्रमाण है। कालओ ण कयाइ णासी, णकयाई कालतः न कदापि न आसीत, न कदापि
काल की अपेक्षा कभी नहीं था ऐसा
नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी ण भवति, ब कयाइ ण भविस्स- न भवति, न कदापि न भविष्यति इति...
नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में इत्ति—भुवि च भवति य भविस्सति अभूच्च भवति च भविष्यति च, ध्रुवः था, वर्तभान में है और भविष्य में रहेगा। य, धुवे णिइए सासते अक्खए निचितः शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अत: वह ध्रुव, निचित, शाश्वत, अक्षय, अब्दए अवद्विते णिच्चे। अवस्थितः नित्यः ।
अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भावओ अवण्णे अगंधे अरसे भावतः अवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः ।
भाव की अपेक्षा-अवर्ण, अगंध, अरस अफासे।
और अस्पर्श है। गुणओ उवोगगुणे। गुणतः उपयोगगुणः ।
गुण की अपेक्षा–उपयोग गुण वाला है। १७४. पोग्गलत्यिकाए पंचवणे पंचरसे पुद्गलास्तिकायः पञ्चवर्णः पञ्चरस: १७४. पुद्गलास्तिकाय पंचवर्ण, पंचररा, द्विदुगंधे अट्ठ फासे रूवी अजीवे द्विगन्धः अष्टस्पर्शः रूपी अजीवः
गंध, अष्टस्पर्श, रूपी, अजीव, शाश्वत,
अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत सासते अवढ़िते 'लोगदव्वे। शाश्वतः अवस्थितः लोकद्रव्यम् ।
द्रव्य है। से समासओ पंचविधे पण्णते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्त:,
संक्षेप में वह पांच प्रकार का हैजहातदयथा
१. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा, दव्वजो, खेत्तओ, कालओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, ३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, भावओ, गुणओ। गुणतः।
५. गुण की अपेक्षा। दव्वओणं पोग्गलत्थिकाए अणंताई द्रव्यतः पूदगलास्तिकायः अनन्तानि द्रव्य की अपेक्षा-अनन्त द्रव्य है। दवाई। द्रव्याणि।
क्षेत्र की अपेक्षा-लोकप्रमाण है। खेतओलोगपमाणमेत्ते। क्षत्रतः लोकप्रमाणमात्रः ।
काल की अपेक्षा--कभी नहीं था ऐसा कालओ ण कयाइ णाप्ति, •ण कालतः न कदापि नासीत्, न कदापि नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण न भवति, न कदापि न भविष्यति इति... नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, भबिस्सइत्ति....भुवि च भवति य अभूच्च भवति च भविष्यति च, ध्रुवः वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अत: भविस्सति य, धुवे णिइए सासते निचितः शाश्वत: अक्षय: अव्ययः वह ध्रुव, निचित,शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अक्खए अब्धए अवदिते णिच्चे। अवस्थितः नित्यः ।
अवस्थित और नित्य है। भावओ वग्णभंते गंधमते रसमंते भावतः वर्णवान् गन्धवान् रसवान्
भाव की अपेक्षा वर्णवान्, गंधवान्, फासमंते। स्पर्शवान् ।
रसवान् तथा पर्शवान् है। गुणओ गहणगुणे। गुणतः ग्रहणगुणः ।
गुण की अपेक्षा ग्रहण-गुण-समुदित होने की योग्यतावाला है।
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