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ठाणं (स्थान)
९८४
स्थान १० : टि० ३२
वह इस प्रकार है
स्थानांग
तत्वार्थवातिक
१. जनपद सत्य २. सम्मत सत्य ३. स्थापना सत्य ४. नाम सत्य ५. रूप सत्य ६. प्रतीत्य सत्य ७. व्यवहार सत्य ८. भाव सत्य ६. योग सत्य १०. औपम्य सत्य
नाम सत्य रूप सत्य स्थापना सत्य प्रतीत्य सत्य संवृति सत्य संयोजना सत्य जनपद सत्य देश सत्य भाव सत्य समय सत्य
तत्वार्थवार्तिक के अनुसार उनकी व्याख्या इस प्रकार है
१. नाम सत्य-किसी भी सचेतन या अचेतन वस्तु के गुणविहीन होने पर भी, व्यवहार के लिए उसकी वह संज्ञा करना।
२. रूप सत्य-वस्तु की अनुपस्थिति में भी रूप मात्र से उसका उल्लेख करना, जैसे--पुरुष के चित्र को देखकर उसमें चैतन्य गुण न होने पर भी उसे पुरुष शब्द से व्यवहृत करना।
३. स्थापना सत्य-मूल वस्तु के न होने पर भी किसी में उसका आरोपण करना। जैसे-शतरंज में हाथी, घोड़े, वजीर की कल्पना कर मोहरों को उन-उन नामों से बुलाना।
४. प्रतीत्य सत्य-आदि-अनादि औपशमिक आदि भावों की दृष्टि से कहा जाने वाला वचन ।
५. संवृति सत्य-लोक व्यवहार में प्रसिद्ध प्रयोग के अनुसार कहा जाने वाला वचन । जैसे—पृथ्वी, पानी आदि अनेक कारणों से उत्पन्न होने पर भी कमल को पंकज कहना।
६. संयोजना सत्य-धूप, उबटन आदि में तथा कमल, मकर, हंस, सर्वतोभद्र, क्रौंचव्यूह आदि में सचेतन, अचेतन द्रव्यों के भाव, विधि आकार आदि की योजना करने वाला वचन।
७. जनपद सत्य–आर्य और अनार्य रूप में विभक्त बत्तीस देशों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला वचन ।
८. देश सत्य-ग्राम, नगर, राज्य, गण, मन, जाति, कुल, आदि धर्मों के उपदेशक वचन ।
६. भाव सत्य-छद्मस्थता के कारण यथार्थ न जानते हुए भी संयती या श्रावक को सर्व धर्म पालन के लिए यह प्रासुक है' 'यह अप्रासुक है'—ऐसा बताने वाला वचन ।
१०. समय सत्य-आगमों में वर्णित पदार्थों का यथार्थ निरूपण करने वाला वचन।
३२. (सू०६०)
आर्यो ! झूठ बोलने के दस कारण हैं
१. तत्त्वार्थवार्तिक १।२०॥
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