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ori (स्थान)
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स्थान १० : टि० ३२
१. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ ५. प्रेम ६. द्व ेष ७. हास्य ८. भय ६. आख्यायिका १० उपघात । आर्यो ! कुछ मनुष्य क्रोध के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे कभी-कभी अपने मित्र को भी शत्रु बता देते हैं । ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! क्रोध के आवेश में उन्हें यह भान नहीं रहता कि यह मेरा मित्र है या शत्रु ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य मान के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे निर्धन होने पर भी अपने आपको धनवान् बता देते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! वे मान के आवेश में उद्धत होकर अपने को धनवान् बताते हैं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य माया के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। एक नकटा यह कहते हुए घूम रहा है -- नाक कटालो, भगवान् का दर्शन हो जाएगा।' एक मद्य विक्रेता यह कहते हुए घूम रहा है— मद्यपान करो, सब चिन्ताओं से मुक्ति मिल जाएगी। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! माया के आवेश में मनुष्यों को यह भान नहीं रहता कि दूसरों को ठगना कितना बुरा होता है।
आर्यो ! कुछ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं । एक मनुष्य अल्पमूल्य वस्तु को बहुमूल्य बताता है । ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! लोभ के आवेश में वह भूल जाता है कि दूसरों के हित का विघटन करना कितना बड़ा पाप है।
आर्यो ! कुछ मनुष्य प्रेम के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे अपने व्यक्ति के समक्ष यह कह देते हैं- "मैं तो आपका दास हूं।" ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! प्रेम में व्यक्ति अंधा हो जाता है। उसे नहीं दीखता कि मैं किसके सामने क्या कह रहा हूं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य द्वेष के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे कभी-कभी गुणवान् को निर्गुण बता देते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! द्वेष में व्यक्ति दूसरे को नीचा दिखाने में ही अपना गौरव समझता है।
आर्यो ! कुछ मनुष्य हास्य के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे कभी-कभी मजाक में एक दूसरे की चीज उठा लेते हैं और पूछने पर नकार जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! वे मन बहलाने के लिए ऐसा करते हैं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य भय के वशीभूत होकर झूठ बोलते हैं। वे यह सोचते हैं कि यदि मैं ऐसा करूंगा तो वह मुझे मार डालेगा। इस भय से वे सत्य नहीं बोलते। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! भय मनुष्य को असमंजस में डाल देता है ।
आर्यो कुछ मनुष्य आख्यायिका के माध्यम से झूठ बोलते हैं । ये आख्यायिका में अयथार्थ का गुंफन कर झूठ बोलते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! वे सरसता के सहारे असत् को सत् रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं ।
आर्यो ! कुछ मनुष्य उपघातकारक (प्राणी पीड़ाकारक) वचन बोलते हैं। वे चोर को चोर कहकर उसे पीड़ा पहुंचाने का यत्न करते हैं। ऐसा क्यों होता है ? आर्यो ! दूसरों को पीड़ा देने की भावना जाग जाने पर वे ऐसा करते हैं ।
उमास्वाती ने असत् के प्रतिपादन को अनृत कहा है। '
अनृत के दो अंग होते हैं - विपरीत अर्थ का प्रतिपादन और प्राणी- पीडाकर अर्थ का प्रतिपादन । प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित मृषा के दस प्रकारों में प्रारम्भ के नौ प्रकार विपरीत अर्थ के प्रतिपादक हैं और दसवां प्रकार प्राणी पीडाकर अर्थ का प्रतिपादक है।
स्थानांग के वृत्तिकार ने अभ्याख्यान के संदर्भ में उपघात मिश्रित की व्याख्या की है। इसलिए उन्होंने अचोर को चोर कहना - इस अभ्याख्यान वचन को उपघात निश्रित मृषा माना है। हमने उपघात निश्रित की व्याख्या दशवै कालिक ७/११ के सन्दर्भ में की है । उसके अनुसार अचोर को चोर कहना उपघात निश्रित मृषा नहीं है, किन्तु चोर को चोर कहना उपघात निश्रित मृषा है।"
१. तत्त्वार्थ सूत्र ७ १४ : असदभिधानमनृतम् ।
२. तत्त्वार्थराजवार्तिक ७ १४ : असदिति पुनरुच्यमाने अप्रशस्तार्थं यत् तत्सर्वमनृतमुक्तं भवति । तेन विपरीतार्थस्य प्राणिपीडाकरस्य चानृतत्वमुपपन्नं भवति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६५ उवघायनिस्सिए ति उपघातेप्राणिवधे निश्रितं - आश्रितं दशमं मृषा, अचौरेऽयमित्यभ्याख्यानवचनम् ।
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४. दशवेकालिक ७ १२, १३ :
तहेव काणं काणे ति पंडगं पंडगे त्ति वा । वाहियं वा वि रोगि ति तेणं चोरे त्ति नो वए । एएणनेण बट्टेण परो जेहमई । आयार-भाव-दोसन्नू न तं भासेज्ज पन्नवं ॥
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