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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : टि०६१-६४
३. संतुलित मनोवृत्ति, विनिमय या समता में विश्वास करने वाला मनुष्य दूसरों को सेवा देते भी हैं और लेते
भी हैं। ४. निरपेक्ष या नितान्त व्यक्तिवादी मनोवृत्ति वाले मनुष्य न दूसरों को सेवा देते हैं और न लेते ही हैं।
६१ (सू० ४२१)
धर्म की प्रियता और दृढ़ता-ये दोनों क्रमिक विकास की भूमिकाएं हैं। व्यक्ति में पहले प्रियता उत्पन्न होती है फिर दृढ़ता आती है। इस दृष्टि से कुछ पुरुष प्रियधर्मा होते हैं, दृढ़धर्मा नहीं होते। यह भंग-रचना समुचित है। कुछ पुरुष दृढ़धर्मा होते हैं, प्रियधर्मा नहीं होते। यह दूसरे भंग की रचना संगत नहीं लगती। प्रियधर्मा हुए बिना कोई दृढ़धर्मा कैसे हो सकता है ? इस असंगति का उतर व्यवहारभाष्यकार तथा उसके आधार पर स्थानांग वृत्तिकार ने दिया है -
कुछ पुरुषों की धृति और शक्ति दुर्बल होती है, किन्तु धर्म के प्रति उनकी प्रीति सहज हो जाती है। इस कोटि के पुरुष धर्म के प्रति सरलता से अनुरक्त हो जाते हैं, किन्तु उसका दृढ़ता पूर्वक पालन नहीं कर पाते । वे आपदा के समय में क्षुब्ध होकर स्वीकृत धर्माचरण से विचलित हो जाते हैं।
कुछ पुरुषों की धृति और शक्ति प्रबल होती है, किन्तु उनमें धर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न करना बहुत कठिन होता है। इस कोटि के पुरुष धर्म के प्रति सरलता से अनुरक्त नहीं होते, किन्तु वे जिस धर्माचरण को स्वीकार कर लेते हैं, जो प्रतिज्ञा करते हैं, उसे अंत तक पार पहुंचाते हैं । बड़ी-से-बड़ी कठिनाई आने पर भी वे स्वीकृत धर्म से विचलित नहीं होते। इस दृष्टि से सूत्रकार ने दूसरे भंग के अधिकारी पुरुष को दृढधर्मा कहा है। उसमें प्रियधर्मा का पक्ष गौण है, इसलिए सूत्रकार ने उसे अस्वीकृत किया है।
६२ (सू० ४२२) :
धर्माचार्य —जो धर्म का उपदेश देता है, प्रथम बार धर्म में प्रेरित करता है, वह धर्माचार्य कहलाता है। वह गहस्थ या श्रमण कोई भी हो सकता है।'
जो केवल प्रव्रज्या देता है, वह प्रव्राजनाचार्य होता है। जो केवल उपस्थापना करता है, वह उपस्थापनाचार्य होता है जो केवल धर्म में प्रेरित करता है, वह धर्माचार्य होता है।
क्रम की दृष्टि से प्रथम धर्माचार्य, दूसरे प्रव्राजनाचार्य और तीसरे उपस्थापनाचार्य होते हैं ये तीनों पृथक्-पृथक ही हों --यह आवश्यक नहीं हैं। एक ही व्यक्ति धर्माचार्य, प्रव्राजनाचार्य और उपस्थापनाचार्य भी हो सकता है।"
जो केवल उद्देशन देता है, वह उद्देशनाचार्य होता है। जो केवल वाचना देता है, वह वाचनाचार्य होता है। पूर्व प्रकरण की भांति एक ही व्यक्ति धर्माचार्य, उद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य हो सकता है।
६३-६४ (सू० ४२४,४२५) :
धर्मान्तेवासी-जो धर्म-श्रवण के लिए आचार्य के समीप रहता है, वह धर्मान्तेवासी होता है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २३० । २. व्यवहारभाष्य, १०॥३५ :
दसविहवेयावच्चे,अन्नयरे खिप्पमुज्जम कुणइ ।
अच्चेतमणिव्वाही, धितिविरियकिसे पढमभंगो।। ३. व्यवहारभाष्य, १३६ :
दुक्खेण उगाहिज्जइ, बिइओ गहियं तु नेइ जा तीरं । ४. क-व्यवहारभाष्य, १०:४० :
जो पुण नो भयकारी, सो कम्हा भवति आयरिओ उ । भण्णति धम्मायरितो, सो पुण गहितो व समणो वा ॥
ख-स्थानांगवृत्ति, पत्र २३० : धम्मो जेणुवइट्ठो, सो धम्मगुरू
गिही व समणो वा। ५. क- व्यवहारभाष्य, १०९४१ :
धम्मायरि पव्वायण, तह य उठावणा गुरु तइओ।
कोइ तिहिं संपन्नो, दोहिं वि एक्केक्कएण वा ।। ख-स्थानांगवृत्ति, पत्र २३० : कोवि तिहिं सजुत्तो,
दोहि वि एक्केक्कगेणेव।
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