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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४: टि०१५-६७
जो केवल प्रव्रज्या ग्रहण की दृष्टि से आचार्य के पास रहता है वह प्रव्राजनान्तेवासी होता है। जो केवल उपस्थापना की दृष्टि से आचार्य के पास रहता है, वह उपस्थापनान्तेवासी होता है। एक ही व्यक्ति धर्मान्तेवासी, प्रव्राजनान्तेवासी और उपस्थापनान्तेवासी हो सकता है।
६५ रात्निक (सू० ४२६) :
जो दीक्षापर्याय में बड़ा होता है वह रात्निक कहलाता है। विशेषविवरण के लिए दसबेआलियं ८/४० का टिप्पण द्रष्टव्य है।
६६ (सू० ४३०) :
श्रमणों की उपासना करने वाले गृहस्थ श्रमणोपासक कहलाते हैं। उनकी श्रद्धा और वृत्ति की तरतमता के आधार पर उन्हें चार वर्गों में विभक्त किया गया है। जिनमें श्रमणों के प्रति प्रगाढ़ वत्सलता होती है, उनकी तुलना माता-पिता से की गई है। माता-पिता के समान श्रमणोपासक तत्त्वचची व जीवननिर्वाह-दोनों प्रसंगों में वत्सलता का परिचय देते हैं।
जिनमें श्रमणों के प्रति वत्सलता और उग्रता दोनों होती है, उनकी तुलना भाई से की गई है। इस कोटि के श्रमणोपासक तत्त्वचा में निष्ठुर वचनों का प्रयोग कर देते हैं, किन्तु जीवननिर्वाह के प्रसंग में उनका हृदय वत्सलता से परिपूर्ण होता है।
जिन श्रमणोपासकों में सापेक्षप्रीति होती है और कारणवश प्रीति का नाश होने पर वे आपत्काल में भी उपेक्षा करते हैं, उनकी तुलना मित्र से की गई है। इस कोटि के श्रमणोपासक अनुकूलता में वत्सलता रखते हैं और कुछ प्रतिकूलता होने पर श्रमणों की उपेक्षा करने लग जाते हैं।
कुछ श्रमणोपासक ईर्ष्यावश श्रमणों में दोष ही दोष देखते हैं, किसी भी रूप में उपकारी नहीं होते, उनकी तुलना सपत्नी (सौत) से की गई है।
९७ (सू० ४३१) :
प्रस्तुत सूत्र में आन्तरिक योग्यता और अयोग्यता के आधार पर श्रमणोपासक के चार वर्ग किए गए हैं।
आदर्श (दर्पण) निर्मल होता है। वह सामने उपस्थित वस्तु का यथार्थ प्रतिबिम्ब ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासक श्रमण के तत्त्व-निरूपण को यथार्थ रूप में ग्रहण कर लेते हैं।
ध्वजा अनवस्थित होती है। वह किसी एक दिशा में नहीं टिकती। जिधर की हवा होती है, उधर ही मुड़ जाती है। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासकों का तत्त्वबोध अनवस्थित होता है। उनके विचार किसी निश्चित बिन्दु पर स्थिर नहीं होते।
स्थाणु शुष्क होने के कारण प्राणहीन हो जाता है। उसका लचीलापन चला जाता है। फिर वह झुक नहीं पाता। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासकों में अनाग्रह का रस सूख जाता है। उनका लचीलापन नष्ट हो जाता है। फिर वे किसी नये सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते।
कपड़े में कांटा लग गया। कोई आदमी उसे निकालता है। कांटे की पकड़ इतनी मजबूत है कि वह न केवल उस वस्त्र को ही फाड़ डालता है, अपितु निकालने वाले के हाथ को भी बींध डालता है। कुछ श्रमणोपासक कदाग्रह से ग्रस्त होते हैं। उनका कदाग्रह छड़ाने के लिए श्रमण उन्हें तत्त्वबोध देते हैं। वे न केवल उस तत्त्वबोध को अस्वीकार करते हैं, किन्तु तत्त्वबोध देने वाले श्रमण को दुर्वचनों से बींध डालते हैं।
१. स्थानांगवृत्ति, पब २३० : रालिक: पर्यायज्येष्ठः ।
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