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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : सूत्र ६८-१००
६८ (सू० ४६७) :
प्रस्तुत सूत्र एक पहेली है। इसकी एक व्याख्या अनुवाद के साथ की गई है। यह अन्य अनेक नयों से भी व्याख्येय है१. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं --श्रुत से बढ़ते हैं, सम्यकदर्शक से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-श्रुत से बढ़ते हैं, सम्यकदर्शन और विनय से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं --श्रुत और चारित्र से बढ़ते हैं, सम्यकदर्शन से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-श्रुत और अनुष्ठान से बढ़ते हैं, सम्यक्दर्शन और विनय से हीन
होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं-क्रोध से बढ़ते हैं, माया से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं--क्रोध से बढ़ते हैं, माया और लोभ से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं—क्रोध और मान से बढ़ते हैं, माया से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं---क्रोध और मान से बढ़ते हैं, माया और लोभ से हीन होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं ---तृष्णा से बढ़ते हैं, आयु से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं---तृष्णा से बढ़ते हैं, मैत्री और करुणा से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं-ईर्ष्या और क्रूरता से बढ़ते हैं, मैत्री से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-मैत्री और करुणा से बढ़ते हैं, ईर्ष्या और क्रूरता से हीन होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं- बुद्धि से बढ़ते हैं, हृदय से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं- बुद्धि से बढ़ते हैं, हृदय और आचार से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं—बुद्धि और हृदय से बढ़ते हैं, अनाचार से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं --बुद्धि और हृदय से बढ़ते हैं, अनाचार और अश्रद्धा से हीन होते हैं। १. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं--सन्देह से बढ़ते हैं। मंत्री से हीन होते हैं। २. कुछ पुरुष एक से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं ---सन्देह से बढ़ते हैं, मैत्री और मानसिक सन्तुलन से हीन होते हैं। ३. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, एक से हीन होते हैं—मैत्री और मानसिक सन्तुलन से बढ़ते हैं, सन्देह से हीन होते हैं। ४. कुछ पुरुष दो से बढ़ते हैं, दो से हीन होते हैं-मैत्री और मानसिक सन्तुलन से बढ़ते हैं, सन्देह और अधैर्य से हीन
होते हैं।
६६ (सू० ४८६) :
ह्रीसत्त्व और ह्रीमनःसत्त्व-~-इन दोनों में सत्त्व का आधार लोक-लाज है। कुछ लोग आन्तरिक सत्त्व के विचलित होने पर भी लज्जावश सत्त्व को बनाए रखते हैं, भय को प्रदर्शित नहीं करते। जो ह्रीसत्त्व होता है, वह लज्जावश शरीर
और मन दोनों में भय के लक्षण प्रदर्शित नहीं करता। जो ह्रीमनःसत्त्व होता है, वह मन में सत्त्व को बनाए रखता है, किन्तु उसके शरीर में भय के लक्षण-रोमांच, कंपन आदि प्रकट हो जाते हैं।
१०० शय्या प्रतिमाएं (सू० ४८७) :
शय्या प्रतिमा का अर्थ है --संस्तार विषयक अभिग्रह । प्रथम प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट [नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित] संरतार मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, दूसरा नहीं।
द्वितीय प्रतिमा को पालन करने वाला मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट [नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित ] संस्तार में दृष्ट को ही ग्रहण करूंगा, अदृष्ट को नहीं।
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