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________________ ठाणं (स्थान) ४. दुरुपनीत - जिस दृष्टान्त का उपसंहार (निगमन) दोष पूर्ण हो अथवा वैसा दृष्टान्त जो साध्य के लिए अनुपयोगी और स्वमत दूषित करने वाला हो, जैसे---- तद्वस्तुक Jain Education International ५२५ एक परिव्राजक जाल लेकर मछलियां पकड़ने जा रहा था। रास्ते में एक धूर्त मिला। उसने कुछ पूछा और परिव्राजक ने असंगत उत्तर देकर अपने आप को दूषित व्यक्ति प्रमाणित कर दिया। एक व्यक्ति ने परिव्राजक के कन्धे पर रखे हुए जाल को देखकर पूछा- महाराज ! आपकी कंथा छिद्रवाली क्यों है ? परिव्राजक - यह मछली पकड़ने का जाल है । व्यक्ति - तुम मछलियां खाते हो ? परि० --- मैं मदिरा के साथ मछलियां खाता हूं । व्यक्ति - तुम मदिरा पीते हो ? परि० अकेला नहीं पीता, वेश्या के साथ पीता हूं। व्यक्ति -- तुम वेश्या के पास भी जाते हो ? तुम धन कहां से लाते हो ? परि० -- शत्रुओं के गलहत्था देकर । व्यक्ति -- तुम्हारे शत्रु कौन हैं ? परि० --- जिनके घर में सेंध लगाता हूं व्यक्ति ---तुम चोरी भी करते हो ? स्थान ४ : टि० १११ परि०--- हां, जुआ खेलने के लिए धन चाहिए । व्यक्ति – अरे, तुम जुआरी भी हो ? परि० - हां, क्यों नहीं । मैं दासी का पुत्र हूं, इसलिए जुआ खेलता हूं । व्यक्ति ने सामान्य बात पूछी। किन्तु परिव्राजक उसको संक्षिप्त उत्तर न दे सका । अतः अन्त में उसकी पोपलीला खुल गई। किसी ने कहा -- समुद्र तट पर एक बड़ा वृक्ष है। उसकी शाखाए जल और स्थल दोनों पर हैं। उसके जो पत्ते जल में गिरते हैं वे जलचर जीव हो जाते हैं और जो स्थल में गिरते हैं वे स्थलचर जीव हो जाते हैं । यह सुन दूसरे आदमी ने उसकी बात का विघटन करते हुए कहा -- जो जल और स्थल के बीच में गिरते हैं, उनका क्या होता है ? प्रथम व्यक्ति के द्वारा उपन्यस्त वस्तु को पकड़कर उसका विघटन करना तद्वस्तुक नाम का उपन्यासोपनय होता है। इसे दृष्टान्त के आकार में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-जल और स्थल में पतित पत्र जलचर और स्थलचर जीव नहीं होते, जैसे—जल और स्थल के बीच में पतित पत्र । यदि जल और स्थल में पतित पत्र जलचर और स्थलचर जीव होते हों तो उनके बीच में पतित पत्र जलचर और स्थलचर का मिश्रित रूप होना चाहिए। ऐसा होता नहीं है, इसलिए यह बात मिथ्या है। इसका दूसरा उदाहरण यह हो सकता है—जीव नित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे- आकाश । वादी द्वारा इस स्थापना के पश्चात् प्रतिवादी इसका निरसन करता है—जीव अनित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे - कर्म । तदन्यवस्तुक इसमें वस्तु का परिवर्तन कर वादी के मत का विघटन किया जाता है। जल में पतित पत्र जलचर और स्थल में पतित पत्र स्थलचर हो जाते हैं। ऐसा कहने पर दूसरा व्यक्ति कहता है— गिरे हुए पत्र ही जलचर और स्थलचर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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