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________________ आमुख प्रस्तुत स्थान में तीन की संख्या से संबद्ध विषय संकलित हैं। यह चार उद्देशकों में विभक्त है। इसमें तात्त्विक विषयों के साथ-साथ साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक विषयों की अनेक विभंगियां मिलती हैं। उनमें मनुष्य की शाश्वत मनोभूमिकाओं तथा वस्तु-सत्यों का बहुत मार्मिक ढंग से उद्घाटन हुआ है। मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं--सुमनस्क, दुर्मनस्क और तटस्थ । प्रत्येक मनुष्य बोलता है पर बोलने की प्रतिक्रिया सबमें समान नहीं होती। कुछ मनुष्य बोलने के पश्चात् मन में सुख का अनुभव करते हैं, कुछ लोग दुःख का अनुभव करते हैं और कुछ लोग उक्त दोनों अनुभवों से मुक्त रहते हैं-तटस्थ रहते हैं। इस प्रकार की मनोभूमिका प्रत्येक प्रवृत्ति के परिणामकाल में पाई जाती है । इसी प्रकार कुछ लोग देकर मन में सुख का अनुभव करते हैं, कुछ लोग दुःख का अनुभव करते हैं और कुछ लोग उक्त दोनों अनुभवों से मुक्त रहते हैं। कंजूस व्यक्ति नहीं देकर सुख का अनुभव करते हैं। संस्कृत कवि माघ जैसे व्यक्ति नहीं देकर दुःख का अनुभव करते हैं। कुछ व्यक्ति उपेक्षाप्रधान स्वभाव के होते हैं, वे न देकर सुख-दुःख किसी का भी अनुभव नहीं करते। जो लोग सात्त्विक और हित-मित भोजन करते हैं, वे खाने के बाद सुख का अनुभव करते हैं। जो लोग अहितकर या मात्रा में अधिक खा लेते हैं, वे खाने के बाद दुःख का अनुभव करते हैं। साधक व्यक्ति खाने के बाद सुख-दुःख का अनुभव किए बिना तटस्थ रहते हैं। है, वे लोग युद्ध करने के बाद मन में सुख का अनुभव करते हैं। इस मनोवृत्ति के सेनापतियों और राजाओं के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। जिनके मन में करुणा का स्रोत प्रवाहित होता है, वे लोग युद्ध करने के बाद दुःख का अनुभव करते हैं। सम्राट अशोक का अन्तःकरण युद्ध के बीभत्स दृश्य से द्रवित हो गया था। कलिंग-विजय के बाद उनका करुणाई मन कभी युद्ध-रत नहीं हुआ। जो लोग युद्ध में वेतन पाने के लिए संलग्न होते हैं, वे युद्ध के पश्चात् सुख या दुःख का अनुभव नहीं करते। प्रस्तुत आलापक में इस प्रकार की विभिन्न मनोवृत्तियों का विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत स्थान में कहीं-कहीं संवाद भी संकलित हैं। कुछ सूत्र छेदसूत्र विषयक भी हैं। मुनि तीन पात्र रख सकता है। वह तीन कारणों से वस्त्र धारण कर सकता है। दशवकालिक में वस्त्र-धारणा के दो कारण निर्दिष्ट हैं-संयम और लज्जानिवारण । उत्तराध्ययन में वस्त्र-धारणा के तीन कारण निर्दिष्ट हैं-लोक-प्रतीति, संयम-यात्रा का निर्वाह और ग्रहण-स्वयं मुनित्व की अनुभूति। यहां तीन कारण ये निर्दिष्ट हैं-लज्जानिवारण, जुगुप्सानिवारण और परिषहनिवारण।" १.३१२२५ २.३२३७ ३.३।२४० ४.३१२४३ ५. ३२६७ ६.३१३३६, ३३७ ८. दसवेआलियं ६।१६ जं पि बत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरति य ।। ६. उत्तरज्झयणाणि २३।३२ पच्चयत्थं च लोमस्स नाणा बिहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पमओयणं । १०.३१३४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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