SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ५११ स्थान ४ : टि०७०-७६ ७०-७६ (सू० २६०-२६६) बंध का अर्थ है-दो का योग । प्रस्तुत प्रकरण में उसका अर्थ है-जीव और कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का संबंध । जीव के द्वारा कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण उसके चार प्रकार हैंप्रकृतिबंध-स्थिति, रस और प्रदेश बंध के समुदाय को प्रकृतिबंध कहा जाता है। इस परिभाषा के अनुसार शेष तीनों बंधों के समुदाय का नाम ही प्रकृतिबंध है। प्रकृति का अर्थ है अंश या भेद। ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकृतियों का जो बंध होता है, उसे प्रकृतिबंध कहा जाता है। इसके अनुसार प्रकृति का अर्थ स्वभाव भी है। पृथक्-पृथक् कर्मों में जो ज्ञान आदि को आवृत करने का स्वभाव उत्पन्न होता है, वह प्रकृतिबंध है। दिगम्बर-साहित्य में यह परिभाषा अधिक प्रचलित है। स्थितिबंध ----जीवगृहीत कर्म-पुद्गलों की जीव के साथ रहने की काल-मर्यादा को स्थितिबंध कहा है। अनुभावबंध---कर्म-पुद्गलों की फल देने की शक्ति को अनुभावबंध कहा जाता है। अनुभवबंध, अनुभागबंध और रसबंध भी इसीके नाम हैं। प्रदेशबंध-न्यूनाधिक-परमाणु वाले कर्म-पुद्गलों के स्कंधों का जो जीव के साथ सबंध होता है, उसे प्रदेशबंध कहा जाता है। प्राचीन आचार्यों ने इन बंधों का स्वरूप मोदक के दृष्टान्त द्वारा समझाया है। विभिन्न वस्तुओं से निष्पन्न होने के कारण कोई मोदक वातहर होता है, कोई पित्तहर, कोई कफहर, कोई मारक और कोई व्यामोहकर होता है। इसी प्रकार कोई कर्मज्ञान को आवर्त करता है, कोई व्यामोह उत्पन्न करता है और कोई सुख-दुःख उत्पन्न करता है। कोई मोदक दो दिन तक विकृत नहीं होता, कोई चार दिन तक विकृत नहीं होता। इसी प्रकार कोई कर्म दस हजार वर्ष तक आत्मा के साथ रहता है, कोई पल्योपम और कोई सागरोपम तक आत्म के साथ रहता है। कोई मोदक अधिक मधुर होता है, कोई कम मधुर होता है। इसी प्रकार कोई कर्म तीव्र रस वाला होता है, कोई मंद रस वाला। कोई मोदक छटांक-भर का होता है, कोई पाव का । इसी प्रकार कोई कर्म अल्प परमाणु-समुदाय वाला होता है, कोई अधिक परमाणु-समुदाय वाला। उपक्रम-कर्म-संकधों को विविध रूप में परिणत करने में जो हेतु बनता है, उस जीव-वीर्य का नाम उपक्रम है। उपक्रम का अर्थ आरंभ भी है। कर्म-स्कंधों की विभिन्न परिणतियों के आरम्भ को भी उपक्रम कहा जाता है। बन्धन-कर्म की दस अवस्थाएं हैं १. बंधन २. उद्वर्तना ३. अपवर्तना ४. सत्ता ५. उदय ६. उदीरणा ७. संक्रमण ८. उपशमन ६. निधत्ति १०. निकाचना जीव और कर्म-पुद्गलों के संबंध को बंध कहा जाता है। कर्मो की स्थिति एवं अनुभाव की जो वृद्धि होती है, उसे उद्वर्तना कहा जाता है। उनकी स्थिति एवं अनुभाव की जो हानि होती है, उसे अपवर्तना कहा जाता है। कर्म-पुद्गलों की अनुदित अवस्था को सत्ता कहा जाता है। कर्मों के विपाक काल को उदय कहा जाता है। अपवर्तना के द्वारा निश्चित समय से पहले कर्मों को उदय में लाने को उदीरणा कहा जाता है। सजातीय कर्म-प्रकृतियों के एक-दूसरे में परिणमन करने को संक्रमण कहा जाता है। १. पंचसंग्रह, ४३२ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २०६ : कर्मणः प्रकृतयः-अंशा भेदा ज्ञानावरणीयादयोऽष्टो तासां प्रकृता-अविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिबन्धः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy