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________________ ठाणं (स्थान) ५१२ स्थान ४ : टि०८०-८२ शुभ प्रकृति का अशुभ विपाक के रूप में और अशुभ प्रकृति का शुभ प्रकृति के रूप में परिणमन इसी कारण से होता है। मोहकर्म को उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य करने को उपशमन कहा जाता है। उदवर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय शेष छह करणों के अयोग्य अवस्था को निधत्ति कहते हैं। जिस कर्म का उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, संक्रमण और निधत्ति न हो सके उसे निकाचित कहा जाता है। विपरिणमन-कर्म-स्कंधों के क्षय, क्षयोपशम, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि के द्वारा नई-नई अवस्थाएं उत्पन्न करने को विपरिणामना कहा जाता है। पखंडागम के अनुसार विपरिणामना का अर्थ है निर्जरा 'विपरिणाम मुवक्कमो पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसाणं देस-णिज्जरं सयल-णिज्जरं च परूवेदि।। विपरिणामोपक्रम अधिकारप्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की देश निर्जरा और सकल निर्जरा का कथन करता है। देखें ४।६०३ का टिप्पण। ८०. (सू० ३२०) ये अनुक्रम से ईशान, अग्नि, नैऋत और वायव्य कोण में है। ८१ (सू० ३५०) आजीवक श्रमण-परम्परा का एक प्रभावशाली सम्प्रदाय था। उसके आचार्य थे गोशालक । आजीवक भिक्षु अचेलक रहते थे। वे पंचाग्नि तपते थे। वे अन्य अनेक प्रकार के कठोर तप करते थे। अनेक कठोर आसनों की साधना भी करते थे। प्रस्तुत सूत्र में आए हुए उग्रतप और घोरतप से आजीवकों के तपस्वी होने की सूचना मिलती है। आचार्य नरेन्द्रदेव ने लिखा है—बुद्ध आजीवकों को सबसे बुरा समझते थे । तापस होने के कारण इनका समाज में आदर था। लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न आदि का फल इनसे पुछते थे। रस-निर्वहण और जिह्वन्द्रिय-प्रतिसंलीनता-ये दोनों तप आजीविकों के अस्वाद व्रत के सूचक हैं। प्रस्तुत सूत्र से आगे के तीन सूत्रों (३५१-३५३) में क्रमश: चार प्रकार के संयम, त्याग और अकिञ्चनता का निर्देश है । उनमें आजीवक का उल्लेख नहीं है और न ही इसका संवादी प्रमाण उपलब्ध है कि ये आजीवकों द्वारा सम्मत हैं। पर प्रकरणवशात् सहज ही एक कल्पना उद्भूत होती है—क्या यहां आजीबक सम्मत संयम, त्याग और अकिंचनता का निर्देश नहीं है ? ८२ (सू० ३५४) बौद्ध साहित्य में पत्थर, पृथ्वी और पानी की रेखा के समान मनुष्यों का वर्णन मिलता है। भिक्षुओ ! संसार में तीन तरह के आदमी हैं । कौन-सी तीन तरह के ? पत्थर पर खिची रेखा के समान आदमी, पृथ्वी पर खिची रेखा के समान आदमी, पानी पर खिची रेखा के समान आदमी। __ भिक्षुओ! पत्थर पर खिची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुओ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है, जैसे-भिक्षुओ! पत्थर पर खिची रेखा शीघ्र नहीं मिटती, न हवा से न पानी से, चिरस्थायी होती है, इसी प्रकार भिक्षुओं! यहां एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक रहता है। भिक्षओ ! ऐसा व्यक्ति पत्थर पर खिंची रेखा के समान आदमी' कहलाता है। १. षट् खंडागम की प्रस्तावना, पृष्ठ ६३, खण्ड १, भाग १, पुस्तक २। २- बौद्धधर्मदर्शन, पृष्ठ ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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