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________________ ठाणं (स्थान) ५१३ स्थान ४ : टि० ८३-८४ भिक्षुओ ! पृथ्वी पर खिची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुओ ! एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका वह क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता, जैसे- भिक्षुओ ! पृथ्वी पर खिंची रेखा शीघ्र मिट जाती है। हवा से या पानी से चिरस्थायी नहीं होती। इसी प्रकार भिक्षुओ ! यहां एक आदमी प्रायः क्रोधित होता है। उसका क्रोध दीर्घकाल तक नहीं रहता। भिक्षुओ ! ऐसा व्यक्ति 'पृथ्वी पर खिंची रेखा के समान आदमी' कहलाता है। भिक्षुओ ! पानी पर खिंची रेखा के समान आदमी कैसा होता है ? भिक्षुओ ! कोई-कोई आदमी ऐसा होता है कि यदि कड़वा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता है, मिला ही रहता है, प्रसन्न ही रहता है। जिस प्रकार भिक्षुओ ! पानी पर खिंची रेखा शीघ्र विलीन हो जाती है, चिरस्थायी नहीं होती, इसी प्रकार भिक्षुओ ! कोई-कोई आदमी ऐसा होता है जिसे यदि कडुवा भी बोला जाय, कठोर भी बोला जाय, अप्रिय भी बोला जाय तो भी वह जुड़ा ही रहता, मिला ही रहताहै, प्रसन्न ही रहता है। भिक्षुओ ! संसार में ये तीन तरह के लोग हैं। विशेष जानकारी के लिए देखें-६७-६६ का टिप्पण। ८३ (सू० ३५५) प्रस्तुत सूत्र में भावों की लिप्तता-अलिप्तता तथा मलिनता-निर्मलता का तारतम्य उदक के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। कर्दम के चिमटने पर उसे उतारना कष्टसाध्य होता है। खंजन को उतारना उससे अल्प कष्टसाध्य होता है। बालुका लगने पर जल के सूखते ही वह सरलता से उतर जाता है । शैल (प्रस्तरखंड) का लेप लगता ही नहीं। इसी प्रकार मनुष्य के कुछ भाव कष्टसाध्य लेप उत्पन्न करते हैं, कुछ अल्प कष्टसाध्य, कुछ सुसाध्य और कुछलेप उत्पन्न नहीं करते। कर्दमजल की अपेक्षा खंजनजल अल्प मलिन, खंजनजल की अपेक्षा बालुकाजल निर्मल और बालुकाजल की अपेक्षा शैलजल अधिक निर्मल होता है। इसी प्रकार मनुष्य के भाव भी मलिनतर, मलिन, निर्मल और निर्मलतर होते हैं। कौटलीय अर्थशास्त्र में दुर्ग-निर्माण के प्रसङ्ग में खंजनोदक का उल्लेख हुआ है। टिप्पणकार ने इसका अर्थ विच्छिन्न प्रवाह वाला उदक किया है। इसे पंकिल होने के कारण गति वैक्लव्यकर बतलाया गया है।' वृत्तिकार ने खंजन का अर्थ लेपकारी कर्दम किया है।' ८४ (सू० ३५९) कुछ पुरुष दूसरे के मन में प्रीति (या विश्वास) उत्पन्न करना चाहते हैं और वैसा कर देते हैं--इस प्रवृत्ति के तीन हेतु वृत्तिकार द्वारा निर्दिष्ट हैं १. स्थिरपरिणामता। २. उचितप्रतिपत्तिनिपुणता। ३. सौभाग्यवत्ता। जिस व्यक्ति के परिणाग स्थिर होते हैं, जो उचित प्रतिपत्ति करने में निपुण होता है या सौभाग्यशाली होता है, वह ऐसा कर पाता है। जिसमें ये विशेषताएं नहीं होतीं, वह ऐसा नहीं कर पाता। "कुछ पुरुष दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करना चाहते हैं, किन्तु वैसा कर नहीं पाते" १. अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृष्ठ २६१. २६२ । २. कोटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय २, प्रकरण २१॥ ३. क-कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय २, प्रकरण २१: विच्छिन्नप्रवाहोदकं क्वचित्-क्वचित देवोदकविशिष्टमित्यर्थः। ख-खंजनोदकम्-स्वजनं पंकिलत्वाद् गतिर्वक्लव्यकरमुदक यस्मिस्तत् तथा भूतम् । ४. स्थानांगवृत्ति, पन्न २२३ : खञ्जनं दीपादि खजनतुल्य : पादादिलेपकारी कईम. विशेष एव। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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