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________________ ठाणं (स्थान) १२१ स्थान २ : टि० ५१ २. अभिगमसम्यक्दर्शन-शास्त्र अध्ययन अथवा उपदेश से उत्पन्न होने वाला। ये दोनों प्रतिपाती और अप्रतिपाती दोनों प्रकार के होते हैं । मिथ्यादर्शन भी दो प्रकार का होता है१. आभिग्रहिक-आग्रहयुक्त। २. अनाभिनहिक-सहज । कुछ व्यक्ति आग्रही होते हैं। वे जिस बात को पकड़ लेते हैं उसे छोड़ना नहीं चाहते। कुछ व्यक्ति आग्रही नहीं होते किन्तु अज्ञान के कारण किसी भी बात पर विश्वास कर लेते हैं। प्रथम प्रकार के व्यक्ति न केवल मिथ्यादर्शन वाले होते हैं किन्तु उनमें अयथार्थ के प्रति आग्रह भी उत्पन्न हो जाता है। उनकी सत्यशोध की दृष्टि विलुप्त हो जाती है। वे जो मानते हैं उससे भिन्न सत्य हो सकता है, इस सम्भावना को वे स्वीकार नहीं करते। दूसरे प्रकार के व्यक्तियों में स्व-सिद्धान्त के प्रति आग्रह नहीं होता, इसलिए उनमें सत्य-शोध की दृष्टि शीघ्र विकसित हो सकती है। आग्रह और अज्ञान-ये दोनों काल-परिपाक और समुचित निमित्तों के मिलने पर दूर हो सकते हैं और उनके न मिलने पर वे दूर नहीं होते, इसीलिए उन्हें सपर्यवसित और अपर्यवसित दोनों कहा गया है। निसर्गसम्यगदर्शन जैसे सहज होता है, वैसे अनाभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी सहज ही होता है। अभिगमसम्यग्दर्शन उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है, वैसे ही आभिग्रहिकमिथ्यादर्शन भी उपदेश या अध्ययन से प्राप्त होता है। इन दोनों में स्वरूप-भेद है, किन्तु उत्पन्न होने की प्रक्रिया दोनों की एक है। ५१-प्रत्यक्ष-परोक्ष (सू० ८६) इन्द्रिय आदि साधनों की सहायता के बिना जो ज्ञान केवल आत्ममात्रापेक्ष होता है, वह 'प्रत्यक्ष ज्ञान' कहलाता है। अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान परोक्ष होता है । मति, श्रुत-ये दो ज्ञान परोक्ष हैं । स्वरूप की अपेक्षा सब ज्ञान स्पष्ट होता है। प्रमाण के स्पष्ट और अस्पष्ट ये लक्षण बाहरी पदार्थों की अपेक्षा से किए जाते हैं। बाह्य पदार्थों का निश्चय करने के लिए जिसे दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती, वह ज्ञान स्पष्ट कहलाता है और जिसे ज्ञानान्तर की अपेक्षा रहती है, वह अस्पष्ट । परोक्ष प्रमाण में दूसरे ज्ञान की आवश्यकता रहती है, जैसे-स्मृतिज्ञान धारण की अपेक्षा रखता है, प्रत्यभिज्ञान अनुभव और स्मृति की, तर्क व्याप्ति की, अनुमान हेतु की तथा आगम शब्द और संकेत आदि की अपेक्षा रखता है, इसलिए वह अस्पष्ट है। दूसरे शब्दों में जिसका ज्ञेय पदार्थ निर्णय काल में छिपा हुआ रहता है, उस ज्ञान को अस्पष्ट या परोक्ष कहते हैं। जैसे-स्मृति का विषय स्मृतिकर्ता के सामने नहीं रहता। प्रत्यभिज्ञान का भी 'वह' इतना विषय अस्पष्ट रहता है। तर्क में निकालकलित साध्य-साधन अर्थात् त्रिकालीन सर्व धूम और अग्नि प्रत्यक्ष नहीं रहते। अनुमान का विषय अग्निमान प्रदेश सामने नहीं रहता। आगम के विषय मेरु आदि अस्पष्ट रहते हैं। अवग्रह आदि को आत्ममानापेक्ष न होने के कारण जहां परोक्ष माना जाता है, वहां उसके मति और श्रुत-ये दो भेद किए जाते हैं और जहां लोक-व्यवहार से अवग्रह आदि को सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष की कोटि में रखा जाता है, वहां परोक्ष के स्मृति आदि पांच भेद किए जाते हैं। आगम-साहित्य में ज्ञान का वर्गीकरण दो प्रकार का मिलता है। एक वर्गीकरण नन्दीसूत्र का और दूसरा वर्गीकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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