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ठाणं (स्थान)
४२ --- (सू० ३८ )
गर्हा का अर्थ है - दुश्चरित के प्रति कुत्सा का भाव। यह प्रायश्चित्त का एक प्रकार है। साधन की अपेक्षा से गर्दा के
दो भेद हैं
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१. मानसिक गर्दा ।
२. वाचिक गर्दा ।
किसी के मन में गर्दा के भाव जागते हैं और कोई वाणी के द्वारा गर्दा करते हैं ।
काल की अपेक्षा से भी उसके दो प्रकार होते हैं
१. दीर्घकालीन गर्हा ।
२. अल्पकालीन ग |
सूत्रकार ने तीसरे स्थान में गर्हा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रकार निर्देशित किया है। वह है काय का प्रतिसंहरण | इसका अर्थ है - दुबारा अकरणीय कार्य में प्रवृत्त न होना। कोई आदमी अकरणीय की गर्हा भी करता जाए और उसका आचरण भी करता जाए, यह वस्तुतः गर्हा नहीं है । वास्तविक गर्हा है - अकरणीय का अनावरण' ।
४३ विद्या और चरण (सू० ४० )
मोक्ष की उपलब्धि के साधनों के विषय में सब दार्शनिक एकमत नहीं रहे हैं। ज्ञानवादी दार्शनिकों ने ज्ञान को मोक्ष का साधन माना है, और क्रियावादी दार्शनिकों ने क्रिया को और भक्तिमार्ग के अनुयायियों ने भक्ति को । जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, इसलिए वह ऐकान्तिक दृष्टि से न ज्ञानवादी है, न क्रियावादी है और न भक्तिवादी ही । उसके मतानुसार ज्ञान, किया और भक्ति का समन्वय ही मोक्ष का साधन है। प्रस्तुत सूत्र में विद्या और चरण इन दो शब्दों के द्वारा उसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।
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उत्तराध्ययन (२८१२) में मोक्ष के चार मार्ग बतलाए गए हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । इन्हें क्रमशः ज्ञानयोग, भक्तियोग, आचारयोग और तपोयोग कहा जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में मार्ग चतुष्टयी का संक्षेप है। विद्या में ज्ञान और दर्शन तथा चरण में चारित्र और तप समाविष्ट होते हैं। उमास्वाति का प्रसिद्ध सूत - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः - इन्हीं दोनों के आधार पर संचरित है।
स्थान २ : टि० ४२ - ५०
४४-५० ( सू० ७६-८५ )
दर्शन का सामान्य अर्थ होता है- दृष्टि, देखना। उसके पारिभाषिक अर्थ दो होते हैं, सामान्यग्राहीबोध और
तत्त्वरुचि ।
बोध दो प्रकार का होता है
१. विशेषग्राही, २. सामान्यग्राही ।
विशेषग्राही को ज्ञान और सामान्यग्राही को दर्शन कहा जाता है।
प्रस्तुत प्रकरण में दर्शन का अर्थ तत्त्वरुचि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दर्शन दो प्रकार का होता है
१. सम्यग्दर्शन -- वस्तु सत्य के प्रति यथार्थश्रद्धा ।
२. मिथ्यादर्शन -- वस्तु सत्य के प्रति अयथार्थ श्रद्धा ।
उत्पत्ति की दृष्टि से सम्यक दर्शन दो प्रकार का होता है
१. निसर्ग सम्यक दर्शन - आत्मा की सहज निर्मलता से उत्पन्न होने वाला ।
१. स्थानांग, ३।२६ ।
२. सम्मतिप्रकरण २।१ जं सामण्णग्गहणं, दंसणमेयं विसेसियं णाणं ।
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