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________________ स्थान ३ : सूत्र ६४-६६ ठाणं (स्थान) १७४ चलेज्जा, विकुब्वमाणे वा पोग्गले स्थानात् वा स्थानं संक्रम्यमाणः पुद्गल: चलेज्जा, ठाणाओ वा ठाणं चलेत् । संकामिज्जमाणे पोग्गले चलेज्जा। होता है, २. विक्रियमाण होने पर चलित होता है, ३. एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रमित किए जाने पर चलित होता है। उपधि-पदं उपधि-पदम् उपधि-पद मी पण्णते, तं जहा- त्रिविध उपधिः प्रज्ञप्तः, तदयथा- ६४. उपधि तीन प्रकार की होती हैकम्मोवही, सरीरोवही, कर्मोपधिः, शरीरोपधिः, १. कर्मउपधि, २. शरीरउपधि, बाहिरभंडमत्तोवही। बाह्यभाण्डामत्रोपधिः । ३. वस्व-पाव आदि बाह्य उपधि । एवं असरकमाराणं भाणियव्वं। एवम_असरक माराणां भणितव्यमः । एकेन्द्रिय तथा नैरयिकों को छोड़कर एवं-एगिदियणेरइयवज्ज जाव एवम्—एकेन्द्रियनैरयिकवर्ज यावत् । सभी दण्डकों के तीन प्रकार की उपधि वेमाणियाणं। वैमानिकानाम् । होती है। अहवा.-तिविहे उवधी पण्णत्ते, अथवा-त्रिविध उपधिः प्रज्ञप्तः, अथवा-उपधि तीन प्रकार की होती तं जहा—सचित्ते, अचित्ते, मीसए। तद्यथा-सचित्तः, अचित्तः, मिश्रकः । । है-१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिश्र। एवं_णेरइयाणं णिरंतरं जाव एवम_नैरयिकाणां निरंतरं यावत् सभी दण्डकों के तीन प्रकार की उपधि वेमाणियाणं। वैमानिकानाम् । होती है। परिग्गह-पदं परिग्रह-पदम् परिग्रह-पद ६५. तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः परिग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ६५. परिग्रह तीन प्रकार का होता हैकम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे। कर्मपरिग्रहः, शरीरपरिग्रहः, १. कर्मपरिग्रह, २. शरीरपरिग्रह, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे। बाह्यभाण्डामत्रपरिग्रहः । ३. वस्त्र-पात्र आदि वाह्य परिग्रह। एवं असुरकुमाराणं । एवम्- असु रकमाराणाम् । एकेन्द्रिय तथा नैरयिकों को छोड़कर सभी एवं एगिदियणेरइयवज्जं जाव एवम् —एकेन्द्रियनैरयिकदर्ज यावत् दण्डकों के तीन प्रकार का परिग्रह होता वेमाणियाणं। वैमानिकानाम्। अहवा....तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, अथवा-विविधः परिग्रहः प्रज्ञप्त:, अथवा-परिग्रह तीन प्रकार का होता तं जहा—सचित्ते, अचित्ते, मीसए। तद्यथा—सचित्तः, अचित्तः, मिश्रकः । है-१. सचित्त, २. अचित्त, ३. मिश्र । एवं_णेरइयाणं निरंतरं जाव एवम_नैरयिकाणां निरंतरं यावत सभी दण्डकों के तीन प्रकार का परिग्रह वेमाणियाणं। वैमानिकानाम् । होता है। पणिहाण-पदं प्रणिधान-पदम् प्रणिधान-पद ६६. तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं प्रणिधानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६६. प्रणिधान तीन प्रकार का होता हैमणपणिहाणे, वयपणिहाणे, मनःप्रणिधानं, वचःप्रणिधानं । १. मनप्रणिधान, २. वचनप्रणिधान, कायपणिहाणे। कायप्रणिधानम् । ३. कायप्रणिधान। एवं_पंचिदियाणं जाव वेमाणि- एवम् पञ्चेन्द्रियाणां यावत् सभी पञ्चेन्द्रिय दण्डकों में तीनों प्रणियाणं। वैमानिकानाम् । धान होते हैं। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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