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________________ ठाणं (स्थान) स्थान :टि० २२-२६ २२. (सू० ३६) प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित नाम अन्यत्र कुछ व्यत्यय और भिन्नता के साथ भी मिलते हैं१. आदित्ययशा, २. महायशा, ३. अतिबल, ४. बलभद्र, ५. बलवीर्य, ६. कार्तवीर्य, ७. जलवीर्य, ८. दंडवीर्य । २३-२४. पुरुषादानीय .....गणधर (सू० ३७) यह भगवान् पार्श्व की लोकप्रियता का सूचक है। वे जनता को बहुत प्रिय और उपादेय थे। भगवान महावीर ने अनेक स्थानों पर 'पुरुसादाणीय' शब्द से उन्हें सम्बोधित किया है। ___ समवायांग (समवाय ८८) में भगवान् पार्श्व के आठ गणों और आठ गणधरों के नाम कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं १. शुभ २. शुभघोष ३. वसिष्ठ ४. ब्रह्मचारी ५. सोम ६. श्रीधर ७. वीरभद्र ८. यश । गण और गणधरों के नाम एक ही थे---गण गणधरों के नाम से ही प्रसिद्ध थे। समवायांग और स्थानांगवृत्ति में अभयदेवसूरि ने लिखा है कि स्थानांग और पर्युषणाकल्प में भगवान् पार्श्व के आठ ही गण माने गये हैं, किन्तु आवश्यकनियुक्ति में दस गणों का उल्लेख है। दो गणधर अल्पायुष्य वाले थे इसलिए यहां उनकी विवक्षा नहीं की गई है। समवायांग में आठों नाम एक श्लोक में हैं, इसलिए सम्भव है 'यश' यशोभद्र का संक्षेप हो । स्थानांग की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में वीरिते भद्दजसे-ऐसा पाठ है। उसके अनुसार 'वीर्यभद्र' और 'यश'--ये नाम बनते हैं। २५. दर्शन (सू० ३८) प्रस्तुत सूत्र में दर्शन शब्द की समानता से आठ पर्याय वर्गीकृत हैं। किन्तु सब में दर्शन शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं है । दर्शन का एक वर्ग है -सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यमिथ्यादर्शन। इसमें दर्शन शब्द का प्रयोग 'श्रद्धा' के अर्थ में हुआ है। इसका दूसरा वर्ग है.-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। इसमें दर्शन शब्द का अर्थ हैनिर्विकल्पबोध, सामान्यबोध या अनाकारबोध। स्वप्नदर्शन में दर्शन शब्द का अर्थ है--प्रतिभासबोध । वृत्तिकार का अभिमत है कि स्वप्नदर्शन का अचक्षुदर्शन में अन्तर्भाव होने पर भी सुप्तावस्था के भेद प्रभेदों के कारण उसकी पृथक् विवक्षा की है।' २६. औपमिक अद्धा (सू० ३९) काल के दो प्रकार हैं-उपमाकाल और अनुपमाकाल (संख्या-परिमितकाल) । पल्य, सागर आदि उपमाकाल हैं । अवसर्पिणी आदि छह विभाग सागरोपम से निष्पन्न होते हैं, अतः उन्हें भी उपमाकाल माना है। ३. (क) तत्त्वार्थसूत्र १।२। (ख) स्थानांगवृत्ति, पन ४०८ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ : स्वप्नदर्शनस्याचक्षुदर्शनान्तर्भावेऽपि सुप्तावस्थोपाधितो भेदो विवक्षित इति । १, (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ३६३ : राया प्राइच्चजसो, महाजसे अइबले य बलभद्दे । बलविरिए कत्तविरिए. जलविरिए दंडविरिए य॥ (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०७, ४०८ । २. (क) समवायांगवृति, पत्र १४ : इदं चैतत्प्रमाणं स्थानाने पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके अन्यथा तत्र ह्य क्तम्-'दस नवगं गणाण नाणं जिणिदाणं, [आवश्यकनियुक्ति गाथा २६८] ति कोऽर्थः ? पाश्वस्य दश गणा: गणधराश्च, तदिह द्वयोरल्पायुष्क त्वादिना कारणेनाविवक्षाऽनुगन्तव्येति । (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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