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ठाणं (स्थान)
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स्थान ८: टि० २७-२८ 'समय' से लेकर 'शीर्षप्रहेलिका' तक का समय अनुपमाकाल कहा जाता है।' पुद्गल-परिवर्त
जितने समय में जीव समस्त लोकाकाश के पुद्गलों का स्पर्श करता है, उसे पुद्गल-परिवर्त कहते हैं। उसका कालमान असंख्य उत्सपिणी-अवसर्पिणी जितना है। इसके सात भेद हैं
१. औदारिक पुद्गल-परावर्तन औदारिक शरीर के योग्य समस्त पुद्गलों का औदारिक शरीर के रूप में ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने में जितना समय लगता है उसे औदारिक पुद्गल-परावर्तन कहते हैं। इसी प्रकार
२. वैक्रिय पुद्गल-परावर्तन। ३. तेजस पुद्गल-परावर्तन । ४. कार्मण पुद्गल-परावर्तन। ५. मनः पुद्गल-परावर्तन। ६. वचन पुद्गल-परावर्तन।
७. प्राणापान पुद्गल-परावर्तन-होते हैं २७. (सू० ४०)
प्रस्तुत सूत्र में पुरुषयुग का अर्थ है-एक व्यक्ति का अस्तित्वकाल और भूमि का अर्थ है—काल।
इस सूत्र का प्रतिपाद्य यह है कि अरिष्टनेमि के पश्चात् उनके आठ उत्तराधिकारी पुरुषों तक मोक्ष जाने का क्रम रहा । उसके पश्चात् वह क्रम अवरुद्ध हो गया। २८. (सू० ४१)
वृत्तिकार के अनुसार 'वीरंगए वीरजसे...' -इस गाथा के तीन चरण ही आदर्शों में उपलब्ध होते हैं। उन्होंने'तह संखे कासिवद्धणए-इस चतुर्थ चरण के द्वारा गाथा की पूर्ति की है, किन्तु यह चतुर्थ चरण कहाँ से लिया गया, इसका उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया है।
भगवान् महावीर ने आठ राजाओं को दीक्षित किया। उनका परिचय इस प्रकार है--- १. वीरांगक, २. वीरयशा, ३. संजय
वृत्तिकार ने तीनों राजाओं का कोई विवरण प्रस्तुत नहीं किया है। उत्तराध्ययन के अठारहवें अध्ययन में 'संजय' राजा का नाम आता है। किन्तु वह आचार्य गर्दभालि के पास दीक्षित होता है। अतः प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित 'संजय' कोई दूसरा होना चाहिए।
४. एणेयक
वत्तिकार के अनुसार यह केतकार्द्ध जनपद की श्वेतांबी नगरी के राजा प्रदेशी, जो भगवान का थमणोपासक था, का अधीनवर्ती कोई राजा था। इसके विषय में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है।
राजप्रश्नीय सूत्र में प्रदेशी राजा के अंतेवासी राजा का नाम जितशत्रु दिया है। सम्भव है इसका गोत्र 'एणेय' हो
१. स्थानांगवृत्ति पत्र, ४०८ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ : अष्टमं पुरुषयुग-अष्टपुरुष
कालं यावत् युगान्तकरभूमिः पुरुषलक्षणयुगापेक्षयाऽन्तकराणां-भवक्षयकारिणां भूमिः-कालः सा आसीदिति, इदमुक्तं भव ति–नेमिनाथस्य शिष्यप्रशिष्यक्रमेणाष्टौ पुरुषान् यावनिर्वाणं गतवन्तो न परत इति ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ : 'तह संखे कासिवद्धणए' इत्येवं
चतुर्थपादे सति गाथा भवति, न चैवं दृश्यते पुस्तकेष्विति। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८ :
स च केतकाद्धजनपदश्वेतंबीनगरीराजस्य प्रदेशिनाम्नः श्रमणोपासकस्य निजकः कश्चिद्राजर्षिः । ५. राजप्रश्नीय ५।६।
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