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________________ आमुख इसमें एक सौ अठहत्तर सूत्र हैं। इन सूत्रों में विषयों की बहुविधता है। सूत्र (९३)में दस प्रकार के शस्त्रों का उल्लेख है । अग्नि, विष, नमक, स्नेह, क्षार तथा अम्लता--ये छह द्रव्य शस्त्र हैं तथा मन को दुष्प्रवृत्ति, वचन को दुष्प्रवृत्ति, काया की दुष्प्रवृत्ति तथा मन की आसक्ति-ये चार भावशस्त्र हैं। इसके पन्द्रहवें सूत्र में प्रव्रज्या के दस प्रकार बतलाए हैं। वास्तव में ये सब प्रव्रज्या के कारण हैं। प्रव्रज्या ग्रहण के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें से यहां दस कारणों का संकलन किया गया है। आगमकार ने उदाहरणों का कोई उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार ने उदाहरणों का नामोल्लेख मान किया है। हमने अन्यान्य स्रोतों से उन उदाहरणों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है, देखें-टिप्पण संख्या ६ । इसके सत्तरहवें सूत्र में वैयापृत्य या वयावृत्य का उल्लेख है। वैयावृत्य का अर्थ है-सेवा करना और वयापृत्य का अर्थ है-कार्य में व्याप्त करना । सेवा संगठन का अटूट सूत्र है। सेवा दो प्रकार की होती है- शारीरिक और चैतत्तिक । शारीरिक अस्वस्था को सरलता से मिटाया जा सकता है किन्तु चैतसिक अस्वस्था को मिटाने के लिए धृति और उपाय की आवश्यकता होती है । इस सूत्र में दोनों का सुन्दर वर्णन है, देखें-टिप्पण संख्या ८।। सूत्र (९६) में वचन के अनुयोग के दस प्रकार बतलाए हैं। इनसे शब्दों के अर्थों को समझने का विज्ञान प्राप्त होता है । एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । उनको समझने के लिए वचन के अनुयोग का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, देखेंटिप्पण संख्या ३६। भारतीय संस्कृति में दान की परम्परा बहुत प्राचीन है। दान देने के अनेक कारण बनते हैं। कुछ व्यक्ति भय से दान देते हैं, कुछ ख्याति के लिए और कुछ दया से प्रेरित होकर। प्रस्तुत सूत्र (९७) में दस दानों का निरूपण तत्कालीन समाज में प्रचलित प्रेरणाओं का इतिहास प्रस्तुत करता है, देखें-टिप्पण ३७ । सूत्र (१०३) में भगवान महावीर के दस स्वप्नों का सुन्दर वर्णन है। इस स्थान में यत्र-तन्त्र विज्ञान सम्बन्धी तथ्यों का भी उद्घाटन हुआ है। जैन परम्परा में आहारसंज्ञा, भयमंज्ञा आदि दस संज्ञाएँ मान्य रही हैं। संज्ञा के दो अर्थ होते हैं- संवेगात्मक ज्ञान या स्मृति तथा मनोविज्ञान । इन दस संज्ञाओं में आठ संज्ञाएँ संवेगात्मक हैं और दो संज्ञाएँ-लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा ज्ञानात्मक हैं। आज का विज्ञान छठी इन्द्रिय की कल्पना करता है। उसकी तुलना ओधसंज्ञा से की जा सकती है। विस्तार के लिए देखें-टिप्पण ४४ । इस स्थान में विभिन्न आगमों का विवरण प्राप्त होता है. जो आज अप्राप्त है। सून (११०) में दस दशाओं का कथन है, ऐसे दस आगमों का कथन है जिनमें दस-दस अध्ययन हैं। प्रथम छह दशाओं का विवरण आज भी प्राप्त है किन्तु अन्तिम चार-बंधदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपिकदशा का कोई भी विवरण प्राप्त नहीं है । वृत्तिकार शीलांक सुरि भी 'अस्माकं अप्रतीताः' इतना कहकर विराम ले लेते हैं। इसका अभिप्रायः यही है कि विक्रम की वारहवीं शती तक आतेआते ये चारों ग्रन्थ अविदित हो गए थे। सूत्र (११६) में प्रश्नव्याकरण सूत्र के दस अध्ययनों का उल्लेख है। इनके आधार पर समूचे सूत्र के विषयों की परिकल्पना की जा सकती है। वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण इससे सर्वथा भिन्न है। इसके रूप का निर्णय कब हुआ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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