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________________ ठाणं (स्थान) ७५३ स्थान ७ : सूत्र १५१-१५३ संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा १. सिद्धे सोमणसे या, १. सिद्धः सौमनसश्च, १. सिद्ध, २. सौमनस, ३. मंगलावती, बोद्धव्वे मंगलावतीकडे । बोद्धव्यं मङ्गलावतीकूटम् । ४. देवकुरु, ५. विमल, ६. कांचन, देवकुरु विमल कंचण, देवकुरुः विमलः काञ्चनः, ७. विशिष्ट । विसि टुकडे य बोद्धव्वे ॥ विशिष्टकूटं च बोद्धव्यम् । १५१. जंबुद्दीवे दीवे गंधमायणे वक्खार- जम्बूद्वीपे द्वीपे गन्धमादने वक्षस्कार- १५१. जम्बूद्वीप द्वीप में गंधमादन वक्षस्कार पन्वते सत्त कूडा पण्णत्ता, तं पर्वते सप्त कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- पर्वत के कूट सात हैं जहा १. सिद्धे य गंधमायण, १. सिद्धश्च गंधमादनो, १. सिद्ध, २. गंधमादन, ३. गंधलावती, बोद्धव्वे गंधिलावतीकडे। बोद्धव्यं गन्धिलावतीकूटम् । ४. उत्तरकुरु, ५. स्फटिक, ६. लोहिताक्ष, उत्तरकुरु फलिहे, उत्तरकुरुः स्फटिकः, ७.आनन्दन। लोहितक्खे आणंदणे चेव॥ लोहिताक्ष आनन्दनश्चैव ॥ कुलकोडि-पदं कुलकोटि-पदम् कुलकोटि-पद १५२. विइंदियाणं सत्त जाति-कुलकोडि- द्वीन्द्रियाणां सप्त जाति-कुलकोटि-योनि- १५२. द्वीन्द्रिय जाति के योनि-प्रवाह में होने जोणीपमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता। प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ।। वाली कुलकोटियां सात लाख हैं। पावकम्म-पदं पापकर्म-पदम् पापकर्म-पद १५३. जीवाणं सत्तट्टाणणिव्वत्तिते पोग्गले जीवाः सप्तस्थाननिर्वतितान् पुद्गलान् १५३. जीवों ने सात स्थानों से निर्वतित पुद्गलों पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा का, पापकर्म के रूप में, चय किया है, वा चिणिस्संति वा, तं जहा- चेष्यन्ति वा तद्यथा करते हैं और करेंगेरइयनिव्वत्तिते, नैरयिकनिर्वतितान्, १. नैरयिक निर्वतित पुद्गलों का। 'तिरिक्खजोणियणिब्वत्तिते, तिर्यग्योनिकनिर्वतितान्, २. तिर्यक्योनिक निर्वतित पुद्गलों का। तिरिक्खजोणिणीणिव्वत्तिते, तिर्यग्योनिकीनिर्वतितान्, ३. तिर्यक्योनिकी निर्वतित पुद्गलों का। मणुस्सणिव्वत्तिते, मनुष्यनिर्वतितान्, ४. मनुष्य निर्वतित पुद्गलों का। मणस्सीणिव्वत्तिते, ५. मानुषी निर्वतित पुद्गलों का। देवणिव्वतिते, देवीणिवत्तिते। देवनिर्वतितान्, देवीनिर्वतितान् । ६. देव निर्वतित पुद्गलों का। एवं—चिण- उवचिण-बंध- एवम्-चय-उपचय-बन्ध ७. देवी निर्वतित पुद्गलों का। उदीर-वेद तह णिज्जरा चेव। उदीर-वेदाः तथा निर्जरा चैव । इसी प्रकार जीवों ने सात स्थानों से निर्वतित पुद्गलों का पापकर्म के रूप में उपचय,बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे। मानुषीनिर्वतितान्, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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