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________________ ठाणं (स्थान) ४३६ स्थान ४ : सूत्र ४९४-४६८ ४६४. चहि बादरकाएहि उववज्ज- चतुभिः बादरकायैः उपपद्यमानः लोकः ४६४. चार उत्पन्न होते हुए अपर्याप्तक बादरमाहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं स्पृष्टः प्रज्ञप्तः, तद्यथा कायिक जीवों से समूचा लोक स्पृष्ट हैजहा १. पृथ्वीकायिक जीवों से २. अप्कायिक पुढविकाइएहि, आउकाइएहि, पृथ्वीकायिकैः, अप्कायिकः, जीवों से ३. वायुकायिक जीवों से वाउकाइएहि, वणस्सइकाइएहि। वायुकायिकैः, वनस्पतिकायिकैः । ४. वनस्पतिकायिक जीवों से। तुल्ल-पदं ४६५. चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे। तुल्य-पदम् तुल्य-पद चत्वारः प्रदेशाग्रेण तुल्याः प्रज्ञप्ताः, ४६५. चार प्रदेशाग्र (प्रदेश-परिमाण) से तद्यथा तुल्य हैं--असंख्य प्रदेशी हैंधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय लोकाकाशः, एकजीवः । ३. लोकाकाश ४. एक जीव । णो सुपस्स-पदं नो सुपश्य-पदम् नो सुपश्य-पद ४६६. चउण्हमेगं सरीरं णो सुपस्सं चतुर्णा एक शरीरं नो सुपश्यं भवति, ४६६. चार काय के जीवों का एक शरीर सुपश्यभवइ, तं जहातद्यथा सहज दृश्य नहीं होतापुढविकाइयाणं, आउकाइयाणं, पृथ्वीकायिकानां, अप्कायिकानां, १. पृथ्वीकायिक जीवों का २. अप्कायिक तेउकाइयाणं, वणस्सइकाइयाणं। तेजस्कायिकानां, वनस्पतिकायिकानाम। जीवों का ३. तेजस्कायिक जीवों का ४. साधारण वनस्पतिकायिक जीवों का। इंदियत्थ-पदं इन्द्रियार्थ-पदम् इन्द्रियार्थ-पद ४६७. चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेदेति, चत्वारः इन्द्रियार्थाः स्पृष्टाः वेद्यन्ते, ४६७. चार इन्द्रिय-विषय इन्द्रियों से स्पृष्ट होने तं जहातद्यथा-- पर ही संवेदित किए जाते हैं--- सोइंदियत्थे, घाणिदियत्थे, श्रोत्रेन्द्रियार्थः, घ्राणेन्द्रियार्थः, १. श्रोत्रेन्द्रियविषय-शब्द जिभिदियत्थे, फासिदियत्थे। जिह्वन्द्रियार्थः, स्पर्शेन्द्रियार्थः । २. घ्राणेन्द्रियविषय-गंध ३. रसनेन्द्रियविषय-रस। ४. स्पर्शनेन्द्रियविषय---स्पर्श । अलोग-अगमण-पदं अलोक-अगमन-पदम् अलोक-अगमन-पद ४६८. चहि ठाणेहिं जीवा य पोग्गला चतुभिः स्थानः जीवाश्च पुद्गलाश्च नो ४६८. चार कारणों से जीव तथा पुद्गल लोक य णो संचाएंति बहिया लोगंता शक्नुवन्ति बहिस्तात् लोकान्तात् से बाहर गमन नहीं कर सकतेगमणयाए, तं जहागमनाय, तद्यथा १. गति के अभाव से २. निरूपग्रहतागतिअभावेणं, णिरुवग्गयाए, गत्यभावेन, निरुपग्रहतया, रूक्षतया, गति तत्त्व का आलम्बन न होने से लुक्खताए, लोगाणुभावेणं। लोकानुभावेन । ३. रूक्ष होने से ४. लोकानुभाव-लोक की सहज मर्यादा होने से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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