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ठाणं (स्थान)
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स्थान ८: टि० १७-२०
१७. समितियां (सू० १७)
उत्तराध्ययन २४१२ में ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग को समिति और मन, वचन और काया के गोपन को 'गुप्ति' कहा है। प्रस्तुत सूत्र में इन आठों को 'समिति' कहा गया है। मन, वचन और काया का निरोध भी होता है और सम्यक् प्रवर्तन भी । उत्तराध्ययन में जहाँ इनको 'गुप्ति' कहा है, वहां इनके निरोध की अपेक्षा की गई है और यहां इनके सम्यक प्रवर्तन के कारण इनको समिति कहा है।
१८. प्रायश्चित्त (सू० २०)
प्रस्तुत सूत्र में स्खलना हो जाने पर मुनि के लिए आठ प्रकार के प्रायश्चित्त बतलाए गए हैं। अपराध की लघुता और गुरुता के आधार पर इनका प्रतिपादन हुआ है। लघुता और गुरुता का निर्णय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर किया जाता है। एक ही प्रकार के अपराध में भी प्रायश्चित्त की भिन्नता हो सकती है। यह प्रायश्चित्त देने वाले व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपराध के किस पक्ष को कहाँ लघु और गुरु मानता है। प्रायश्चित्त दान की विविधता का हेतु पक्षपात नहीं, किन्तु विवेक है । निशीथ प्रायश्चित्त सूत्र है। उसमें विस्तार से प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। यहां केवल आठ प्रकार के प्रायश्चित्तों का नामोल्लेख मात्र है। स्थानांग १०७३ में प्रायश्चित्त के दस प्रकार बतलाए हैं। विशेष विवरण वहाँ से ज्ञातव्य है।
१६. मद (सू० २१)
अंगुत्तरनिकाय में मद के तीन प्रकार तया उनसे होने वाले अपायों का निर्देश है --- १. यौवन मद, २. आरोग्य मद, ३. जीवन मद।
इनसे मत्त व्यक्ति शरीर, वाणी और मन से दुष्कर्म करता है। वह शिक्षा को त्याग देता है। उसकी दुर्गति और पतन होता है । वह मर कर नरक में जाता है।'
२०. अक्रियावादी (सू० २२)
चार समवसरणों में एक अक्रियावादी है। वहां उसका अर्थ अनात्मवादी–क्रिया के अभाव को मानने वाला, केवल चित्तशुद्धि को आवश्यक एवं क्रिया को अनावश्यक मानने वाला—किया है। प्रस्तुत सूत्र में इसका प्रयोग 'अनात्मवादी'
और 'एकान्तवादी'-दोनों अर्थों में किया गया है। इन आठ वादों में छह वाद एकान्तदृष्टि वाले हैं। 'समुच्छेदवाद' और 'नास्तिमोक्षपरलोकवाद'—ये दो अनात्मवाद हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने धर्म्यश की दृष्टि से जैसे चार्वाक को नास्तिकअक्रियावादी कहा है, वैसे ही धर्माश की दृष्टि से सभी एकांतवादियों को नास्तिक कहा है
'धर्म्य नास्तिको ह्यको, बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः ।
धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः, सर्वेऽपि परतीथिकाः ।।" अक्रियावादियों के चौरासी प्रकार बतलाए गए हैं
असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीती। अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा॥
१. अंगुत्तरनिकाय, प्रथम भाग, पृष्ठ १४६, १५० । २. सूवकृतांग १।१२।१; भगवती ३०१ । ३. नयोपदेश, श्लोक १२६ । ४. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा ११६ ।
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