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________________ ठाणं (स्थान) स्थान ८ : टि० २० ८३२ प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित वादों का संकलन करते समय सूत्रकार के सामने कौन सी दार्शनिक धाराएं रही हैं, इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है, किन्तु वर्तमान में उन धाराओं के संवाहक दार्शनिक ये हैं१. एकवादी - १. ब्रह्माद्वैतवादी - वेदान्त । २. विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध | ३. शब्दाद्वैतवादी वैयाकरण | ब्रह्माद्वैतवादी के अनुसार ब्रह्म, विज्ञानाद्वैतवादी के अनुसार विज्ञान और शब्दाद्वैतवादी के अनुसार शब्द पारमार्थिक तत्त्व है, शेष तत्त्व अपारमार्थिक हैं, इसलिए ये सारे एकवादी हैं । अनेकान्तदृष्टि के अनुसार सभी पदार्थ संग्रहनय की दृष्टि से एक और व्यवहारनय की दृष्टि से अनेक हैं । २. अनेकवादी - वैशेषिक अनेकवादी दर्शन है। उसके अनुसार धर्म-धर्मी, अवयव अवयवी भिन्न-भिन्न हैं ।' ३. मितवादी १. जीवों की परिमित संख्या मानने वाले । इसका विमर्श स्याद्वादमंजरी में किया गया है। २. आत्मा को अंगुष्टपर्व जितना अथवा श्यामाक तंदुल जितना मानने वाले । यह औपनिषदिक अभिमत है । ३. लोक को केवल सात द्वीप समुद्र का मानने वाले । यह पौराणिक अभिमत है । ४. निर्मितवादी - नैयायिक, वैशेषिक आदि लोक को ईश्वरकृत मानते हैं।' ५. सातवादी बौद्ध | वृत्तिकार के अनुसार 'सातवाद' बौद्धों का अभिमत है । इसकी पुष्टि सूत्रकृतांग ३।४।६ से होती है। चार्वाक का साध्य सुख है, फिर भी उसे 'सातवादी' नहीं माना जा सकता क्योंकि 'सातं सातेण विज्जति' - सुख का कारण सुख ही है, यह कार्य-कारण का सिद्धान्त चार्वाक के अभिमत में नहीं है। बौद्ध दर्शन पुनर्जन्म में विश्वास करता है और उसकी मध्यम प्रतिपदा भी कठिनाइयों से बचकर चलने की है, इसलिए उसे 'सातवादी' माना जा सकता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने सातवाद को बौद्ध सिद्धान्त माना है। 'सात सातेण विज्जति' इस श्लोक की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि अब बौद्धों का परामर्श किया जा रहा है--' इदानीं शाक्याः परामृश्यन्ते'' भगवान् महावीर के अनुसार कायक्लेश भी सम्मत था। सूत्रकृतांग में उसका प्रतिनिधिवाक्य है- 'अत्तहियं खु दुहेण लब्भई' - आत्म-हित कष्ट से सिद्ध होता है । 'सात सातेण विज्जई' – इसी का प्रतिपक्षी सिद्धान्त है । इसके माध्यम से बौद्धों ने जैनों के सामने यह विचार प्रस्तुत किया था कि शारीरिक कष्ट की अपेक्षा मानसिक समाधि का सिद्धान्त श्रेष्ठ है। कार्य-कारण के सिद्धान्तानुसार उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि दुःख सुख का कारण नहीं हो सकता, इसलिए सुख सुख से ही लब्ध होता है । सूतकृतांग के वृत्तिकार ने सातवाद को बौद्धों का अभिमत माना ही है, किन्तु साथ-साथ इसे परिषह से पराजित कुछ जैन मुनियों का अभिमत माना है। ६. समुच्छेदवादी -- प्रत्येक पदार्थ क्षणिक होता है। दूसरे क्षण में उसका उच्छेद हो जाता है। इसलिए बौद्ध समुच्छेदवादी हैं। १. स्याद्वादमंजरी, श्लोक ४ : स्वतोनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो, भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद् द्वयंवदन्तोकुशलाः स्खलन्ति ॥ २. वही, श्लोक २९ : Jain Education International मुक्तोपि वाभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योस्तु मितात्मवादे । षड्जीवकार्य त्वमनन्तसंख्य, माख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः ॥ ३. न्यायसूत्र ४।१।१६-२१: ईश्वर: कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् । न पुरुषकर्माभावे तत्कारितत्वादहेतुः । फलानिष्पत्तेः । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०४ । ५. सूत्रकृतांगचूणि, पृष्ठ १२१ । ६. सूत्रकृतांगवृत्ति पत्र ६६ : एके शाक्यादयः स्वयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ताः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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