________________
ari (स्थान)
६८
देति, तं जहा
२०४. दोहि ठाणेह आया रसाई आसा द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा आस्वादयति, तद्यथादेशेनापि आत्मा रसान् आस्वादयति, सर्वेणापि आत्मा रसान् आस्वादयति ।
देसेणवि आया रसाई आसादेति, सव्वेणवि आया रसाई आसादेति ।
२०५. दोहि ठाणेह आया फासाइं पडि- द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा स्पर्शान् २०५. दो प्रकार से आत्मा स्पर्शो का प्रति
संवेदन करता है—
संवेदेति, तं जहादेसेण वि आया फासाई पडिसंवेदेति, सव्वेणवि आया फासाई पडिसंवेदेति ।
शरीर के एक भाग से भी आत्मा स्पर्शो का प्रतिसंवेदन करता है । "
विकुव्वति परियारेति, 'भासं भासति', आहारेति, परिणामेति, वेदेति, णिज्जरेति ।
समूचे शरीर से भी आत्मा स्पर्शो का प्रतिसंवेदन करता है ।
२०६. दोहि ठाणेहिं आया ओभासति द्वाभ्यां स्थानाभ्यां आत्मा अवभासते, २०६. दो प्रकारों से आत्मा अवभास करता
तं जहा
है - शरीर के एक भाग से भी आत्मा अवभास करता है ।
सेवि आया ओभासति, सव्वेणवि आया ओभासति ।
२०७. एवं पभासति,
स्थान २ : सूत्र २०४ - २०८
रसान् २०४. दो प्रकार से आत्मा रसों का आस्वाद लेता है—शरीर के एक भाग से भी आत्मा रसों का आस्वाद लेता है ।
तं जहा
सेवि देवे सद्दा सुति, सव्वेणवि देवे सद्दाई सुणेति जाव णिज्जरेति ।
प्रतिसंवेदयति, तद्यथादेशेनापि आत्मा स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, सर्वेणापि आत्मा स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति ।
समूचे शरीर से भी आत्मा अवभास करता है।
२०७. इसी तरह दो प्रकारों से शरीर के एक भाग से भी और समूचे शरीर से भी आत्मा-प्रभास करता है, वैक्रिय करता है, मैथुन सेवन करता है, भाषा बोलता है, आहार करता है, उसका परिणमन करता है, उसका अनुभव करता है, उसका उत्सर्ग करता है ।
२०८. दोहि ठाणेहिं देवे सद्दाई सुणेति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां देवः शब्दान् शृणोति, २०८. दो स्थानों से देव शब्द सुनता है
शरीर के एक भाग से भी देव शब्द सुनता है।
समूचे शरीर से भी देव शब्द सुनता है। इसी प्रकार दो स्थानों से शरीर के एक भाग से भी और समूचे शरीर से भी देव - प्रभास करता है, वैक्रिय करता है, मैथुन सेवन करता है, भाषा बोलता है, आहार करता है, उसका परिणमन करता है, उसका अनुभव करता है, उसका उत्सर्ग करता है ।
Jain Education International
तद्यथा
देशेनापि आत्मा अव भासते, सर्वेणापि आत्मा अवभासते ।
समूचे शरीर से भी आत्मा रसों का आस्वाद लेता है।
एवम् प्रभासते, विकुरुते, परिचारयति, भाषां भाषते, आहरति, परिणामयति, वेदयति, निर्ज्जरयति ।
तद्यथा—
देशेनापि देवः शब्दान् शृणोति, सर्वेणापि देवः शब्दान् शृणोति यावत् निर्जरयति ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org