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ठाणं (स्थान)
४४१ विसपरिणयं विसट्टमाणि करित्तए। विकसन्तीं कर्तुम् । विषयः तस्य विसए से विसट्टताए, णो चेव णं विषार्थतायाः, नो चैव संप्राप्त्या अकार्ष: संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा। करिस्संति वा।
•उरगजातिआसीविसस्स णं भंते ! उरगजात्याशीविषस्य भगवन् ! कियान् केवइए विसए पण्णत्ते ? विषयः प्रज्ञप्तः ? पभू णं उरगजातिआसीविसे प्रभुः उरगजात्याशीविष: जम्बूद्वीपजंबुद्दीवपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं प्रमाणमात्रां बोन्दि विषेण विषपरिणतां 'विसपरिणयं विसट्टमाणि विकसन्तीं कर्तुम् । विषयः तस्य विषार्थकरित्तए। विसए से विसद्वताए, तायाः, नो चैव संप्राप्त्या अकार्षुः वा णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा। करेंति वा करिस्संति वा।
स्थान ४ : सूत्र ५१४-५१५ विषपरिणत तथा विदलित कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, पर इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। भगवन् ! उरगजातीय आशीविप के विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में होता है ? । गौतम! उरगजातीय आशीविष अपने विष के प्रभाव से जम्बूद्वीप प्रमाण (लाख योजन) शरीर को विषपरिणत तथा विदलित कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, पर इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा। भगवन् ! मनुष्यजातीय आशीविष के विष का प्रभाव कितने क्षेत्र में होता है ? गौतम ! मनुष्यजातीय आशीविष के विष का प्रभाव समय क्षेत्रामाण (पैंतालीस लाख योजन) शरीर को विषपरिणत तथा विदलित कर सकता है। यह उसकी विषात्मक क्षमता है, पर इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है और न कभी करेगा।
'मणुस्सजातिआसीविसस्स णं मनुष्यजात्याशीविषस्य भगवन् ! भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते?° कियान् विषयः प्रज्ञप्तः ? । पभू णं मणुस्सजातिआसीविसे प्रभुः मनुष्यजात्याशीविषः समयक्षेत्रसमयखेत्तपमाणमेत्तं बोंदि विरोणं प्रमाणमात्रां बोन्दि विषेण विषपरिणतां विसपरिणतं विसट्टमाणि करेत्तए। विकसन्तीं कर्तुम् । विषयः तस्य विषार्थविसए से विसट्ठताए, णो चेव णं तायाः, नो चैव संप्राप्त्या अकार्षुः वा । 'संपत्तीए करेंसुवा करति वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा। करिस्संति वा।
वाहि-तिगिच्छा-पदं व्याधि-चिकित्सा-पदम् ५१५. चउविहे वाही पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः व्याधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
वातिए, पित्तिए, सिभिए, वातिकः, पैत्तिकः, श्लैष्मिकः, सण्णिवातिए।
सान्निपातिकः।
व्याधि-चिकित्सा-पद ५१५. व्याधि चार प्रकार की होती है ---
१. वातिक-वायुविकार से होने वाली २. पैत्तिक----पित्तविकार से होने वाली ३. श्लैष्मिक---कफविकार से होने वाली ४. सान्निपातिक--तीनों के मिश्रण से होने वाली।
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