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________________ ठाणं (स्थान) ८. गोत्र ( सू० ३० ) गोत्र का अर्थ है – एक पुरुष से उत्पन्न वंश-परम्परा । प्रस्तुत सूत्र में सात मुलगोत्र बतलाए हैं। उस समय ये मुख्य गोत्र थे और धीरे-धीरे काल व्यवधान से अनेक अनेक उत्तर गोत्र विकसित होते गए। वृत्तिकार ने इन सातों गोत्रों के कुछ उदाहरण दिए हैं, जैसे ( १ ) काश्यप गोत्र - मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि को छोड़कर शेष बावीस तीर्थकर, सभी चक्रवर्ती [ क्षत्रिय ], सातवें से ग्यारहवें गणधर [ ब्राह्मण] तथा जम्बूस्वामी आदि [ वैश्य ] - ये सभी कश्यप गोत्रीय थे । इसका तात्पर्य है कि इस गोत्र में इन तीनों वर्गों का समावेश था। ७५७ (३) वत्सगोत्र - दशवेकालिक के रचयिता शय्यंभव आदि वत्सगोती थे । (४) कौत्सगोत्र - शिवभूति आदि । (५) कौशिकगोत्र - पडूलुक, [रोहगुप्त ] आदि । (६) मांडव्य गोव- मण्डुऋषि के वंशज । (७) वाशिष्ठ गोत्र – वशिष्ठ के वंशज, छठे गणधर तथा आर्य सुहस्ती आदि । ' Jain Education International स्थान ७ : टि० ८-६ (२) गोतम गोत्र - मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि, नारायण और पद्म को छोड़कर सभी बलदेव वासुदेव तथा इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीन गणधर गोतम गोत्रीय थे । ६. नय ( सू० ३८ ) ज्ञान करने की दो पद्धतियां हैं-पदार्थग्राही और पर्यायग्राही पदार्थग्राही में अनन्त धर्मात्मक पदार्थ को किसी एक धर्म के माध्यम से जाना जाता है। पर्यायग्राही पद्धति में पदार्थ के एक पर्याय [धर्म या अवस्था] को जाना जाता है। पदार्थग्राही पद्धतिको 'प्रमाण' और पर्यायग्राही पद्धति को 'नय' कहा जाता है। प्रमाण इन्द्रिय और मन दोनों से होता है, किन्तु नय केवल मन से ही होता है, क्योंकि अंशों का ग्रहण मानसिक अभिप्राय से ही हो सकता है। नय सात हैं १. नैगमनयद्रव्य में सामान्य और विशेष, भेद और अभेद आदि अनेक धर्मों के विरोधी युगल रहते हैं। नैगमन दोनों की एकाश्रयता का साधक है। वह दोनों को यथास्थान मुख्यता और गौणता देता है। जब भेद प्रधान होता है तब अभेद गौण हो जाता है और जब अभेद प्रधान होता है तब भेद गौण हो जाता है । नैगमनय के अनेक भेद हैं-भूतनैगम, वर्तमाननैगम, भावीनंगम अथवा द्रव्य-नैगम, पर्याय- नैगम, द्रव्य-पर्याय- नैगम | २. संग्रहनय - यह अभेददृष्टि प्रधान है। यह भेद से अभेद की ओर बढ़ता है। सत्ता सामान्य- जैसे विश्व एक है, यह इसका चरम रूप है । गाय और भैंस में पशुत्व की समानता है। गाय और मनुष्य में भी समानता है, दोनों शरीरधारी हैं। गाय और परमाणु में भी ऐक्य है, क्योंकि दोनों प्रमेय हैं। ३. व्यवहारनय – जितने पदार्थ लोक में प्रसिद्ध हैं, अथवा जो-जो पदार्थ लोक व्यवहार में आते हैं, उन्हीं को मानने और अदृष्ट तथा अव्यवहार्य पदार्थों को न मानने को व्यवहारनय कहा जाता है। यह विभाजन की दृष्टि है। यह अभेद से भेद की ओर बढ़ता है । यह पदार्थ में अनन्त भेद कर डालता है, जैसे- विश्व के दो रूप हैं—चेतन और अचेतन । चेतन के दो प्रकार हैं, आदि-आदि। यह नय दो प्रकार का है— उपचारबहुल और लौकिक । उपचारबहुल, , जैसे- पहाड़ जलता है । लौकिक, जैसे- भौंरा काला है। ४. ऋजुसूवनय - यह वर्तमानपरक दृष्टि है। यह अतीत और भविष्य में वास्तविक सत्ता स्वीकार नहीं करती । ५. शब्दtय - यह भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि से युक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। यह शब्द, रूप और उसके अर्थ का नियामक है। इसके अनुसार पहाड़ का जो अर्थ है वह 'पहाड़ी' शब्द व्यक्त नहीं कर सकता। जो १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७० ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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