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ठाणं (स्थान)
स्थान २: टि० ४१
तत्त्वार्थवातिक और सर्वार्थसिद्धि में नैसृष्टिकीक्रिया के स्थान में निसर्गक्रिया का उल्लेख है । वृत्तिकार ने भी नैसृष्टिकी का वैकल्पिक अर्थ निसर्ग किया है। इस आधार पर नेसग्गिया (नैसर्गिकी) पाठ का भी अनुमान किया जा सकता है।' तत्त्वार्थवातिक में स्वहस्तक्रिया का अर्थ है-दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया को स्वयं करना। निसर्गक्रिया का अर्थ हैपापादान आदि प्रवृत्ति के लिए अपनी सम्मति देना। अथवा आलस्यवश प्रशस्त क्रियाओं को न करना । श्लोकवार्तिक में भी इसके ये दोनों अर्थ मिलते हैं।
उक्त क्रियाओं के अग्रिम वर्ग में दो क्रियाएं निर्दिष्ट हैं-आज्ञापनिका और वेदारिणी। वैदारिणीक्रिया का दोनों ग्रन्थों में अर्थभेद है, किन्तु आज्ञापनिकाक्रिया में शब्द और अर्थ दोनों का महान भेद है। वृत्तिकार ने 'आणवणिया' पाठ के दो अर्थ किए हैं-आज्ञा देना और मंगवाना।
- तत्त्वार्थवार्तिक में इसके स्थान पर आज्ञाव्यापादिकाक्रिया उल्लिखित है। इसका अर्थ है-चारित्र मोह के उदय से आवश्यक आदि क्रिया करने में असमर्थ होने पर शास्त्रीय आज्ञा का अन्यथा निरूपण करना।
वैदारिणीक्रिया की व्याख्या देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्तिकार के सामने उसकी निश्चित अर्थ-परंपरा नहीं रही है। इसीलिए उन्होंने विदारण, विचारण और वितारण-इन तीन शब्दों के द्वारा उसकी व्याख्या की है। और 'वेयारणिया' इस पाठ के आधार पर उक्त तीनों शब्दों के द्वारा उसकी व्याख्या की जा सकती है। तत्त्वार्थभाष्य तथा उसकी सभी व्याख्याओं में विदारणक्रिया का उल्लेख मिलता है। और उसका अर्थ किया गया है-दूसरों के द्वारा आचरित निंदनीयकर्म का प्रकाशन । यहां विदारण का अर्थ स्फोट है। इसका तात्पर्य है—गुप्त बात का विस्फोट करना। यह अर्थ विचारण शब्द के द्वारा ही किया जा सकता है।
स्थानांगवत्ति में अनाभोगप्रत्ययाक्रिया का केवल शाब्दिक अर्थ मिलता है। अनाभोगप्रत्ययाक्रिया-अज्ञान के निमित्त से होने वाली क्रिया। इसका आशय तत्त्वार्थस्त्र की व्याख्याओं में मिलता है। अप्रमाजित और अदृष्टभूमि में शरीर, उपकरण आदि रखना अनाभोगप्रत्ययाक्रिया है।
वृत्तिकार ने शाब्दिक व्याख्या से संतोष इसलिए माना है कि उसका आशय मूलसूत्र से ही स्पष्ट हो जाता है। सूत्र पाठ में प्रस्तुत क्रिया के दो भेद निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रथम भेद का अर्थ है-असावधानीपूर्वक उपकरण आदि उठाना और द्वितीय भेद का अर्थ है-असावधानीपूर्वक प्रमार्जन करना। इनमें निक्षेप-उपकरण आदि रखने का अर्थ समाहित नहीं है। उसे आदान के द्वारा गृहीत करना सूत्रकार को विवक्षित है-ऐसी संभावना की जा सकती है।
अनवकांक्षाप्रत्ययाक्रिया की व्याख्या वृत्तिकार ने सूत्रपाठ के आधार पर की है। उसका आशय है-स्व या पर शरीर से निरपेक्ष होकर किया जाने वाला क्षतिकारीकर्म । तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्याओं में इसका अर्थ भिन्न मिलता है। उनके
१. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३६ :
निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थः, तत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी,
निसृजतो यः कर्मबन्धः इत्यर्थः, निसर्ग एव । २. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५ :
यां परेण निर्वत्या क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया । ३. तत्त्वार्थवातिक, ६५:
पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया। आलस्याद्वा
प्रशस्तक्रियाणामकरणम् । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५:
पापप्रवृत्ता बन्येषामभ्यनुज्ञानमात्मना ।
स्यान्निसर्गक्रियालस्याद्कृति र्वा सुकर्मणाम् ।। ५. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३६ :
आज्ञापनस्य-आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी सेवाज्ञापनिका तज्ज, कर्मबन्धः, आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६ :
विदारणं विचारणं वितारणं वा स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद वैदा
रिणीत्यादि वाच्यमिति। ७. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५:
पराचरित सावद्यादिप्रकाशनं विदारण क्रिया। ८. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४० :
अनाभोग:-अज्ञानं प्रत्ययो-निमित्त यस्याः सा तथा। ६. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५ :
अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादि निक्षेपोऽनाभोग क्रिया। (ख) तत्त्वार्थसूत्र, ६६ भाष्यानुसारिणी टीका :
अनाभोगक्रिया अप्रत्यवेक्षिता प्रमाजिते देशे शरीरोपकरणनिक्षेपः। १०. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६ :
अनवकांक्षा-स्वशरीराधनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकांक्षाप्रत्यया।
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