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________________ ठाणं (स्थान) स्थान २ : टि० ४१ की क्रिया करने वाले व्यक्ति को प्रशंसा आदि के द्वारा समर्थन देना, जैसे-तू अच्छा कार्य कर रहा है-मिथ्यादर्शन क्रिया है। इन दोनों अर्थों में तत्त्वार्थवार्तिक का अर्थ अधिक स्पष्ट होता है। दृष्टिजा और स्पृष्टिजा इन दोनों क्रियाओं के स्थान में तत्त्वार्थवातिक में दर्शनक्रिया और स्पर्शनक्रिया-ये दो क्रियाएं प्राप्त हैं। स्थानांगवृत्ति के अध्ययन से ऐसा लगता है कि इनकी अर्थपरम्परा वृत्तिकार के सामने स्पष्ट नहीं रही है। उन्होंने इन दोनों के अनेक अर्थ किए हैं, जैसेदृष्टिजा दृष्टि से होने वाली क्रिया। वृत्तिकार ने इसका दूसरा अर्थ दृष्टिका किया है। इसका अर्थ है दृष्टि के निमित्त से होने वाली क्रिया । दर्शन के लिए जो गतिक्रिया होती है अथवा दर्शन से जो कर्म का उदय होता है वह दृष्टिजा या दृष्टिका कहलाता है। इसी प्रकार पुट्ठिया के भी उन्होंने पृष्टिजा, पृष्टिका, स्पृष्टिजा और स्पृष्टिका-ये चार अर्थ किए हैं।' तत्त्वार्थवातिक में दर्शनक्रिया और स्पर्शनक्रिया के अर्थ बहुत स्पष्ट मिलते हैं। दर्शनक्रिया-राग के वशीभूत होकर प्रमादी व्यक्ति का रमणीय रूप देखने का अभिप्राय । स्पर्शनक्रिया-प्रमादवश छूने की प्रवृत्ति।' तत्त्वार्थवातिक में प्रातीत्यिकीक्रिया का उल्लेख नहीं है। उसमें प्रात्यायिकीक्रिया उल्लिखित है। लगता है कि पडुच्च का ही संस्कृतीकरण प्रत्यय किया गया है। प्रात्यायिकीक्रिया का अर्थ है, नए-नए कलहों को उत्पन्न करना। सामन्तोपनिपातिकीक्रिया का अर्थ स्थानांगवत्ति और तत्त्वार्थवातिक में आपाततः बहुत ही भिन्न लगता है। स्थानांगवृत्ति के अनुसार सामन्तोपनिपात-जनमिलन में होने वाली क्रिया सामन्तोपनिपातिकी है। तत्त्वार्थवातिककार ने इसका अर्थ किया है-स्त्री-पुरुष, पशु आदि से व्याप्त स्थान में मलोत्सर्ग करना समन्तानुपातक्रिया है। तत्त्वार्थवातिक में मलोत्सर्ग करने की बात कही है वह प्रस्तुत क्रिया की व्याख्या का एक उदाहरण हो सकता है। स्थानांगवृत्ति में जीवसामन्तोपनिपातिकी और अजीवसामान्तोपनिपातिकी का अर्थ किया है-अपने आश्रित बैल आदि जीव तथा रथ आदि अजीव पदार्थों की जनसमूह से प्रशंसा सुन खुश होना। यह भी एक उदाहरण प्रतीत होता है। वस्तुतः प्रस्तुत क्रिया का आशय यह होना चाहिए कि जीव, अजीव आदि द्रव्यसमूह के संपर्क से होने वाली मानसिक उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति अथवा उनके प्रतिकूल आचरण । हरिभद्र सूरि ने समन्तानुपातक्रिया का अर्थ किया है-स्थण्डिल आदि में भक्त आदि विसर्जित करने की क्रिया। यह भी एक उदाहरण के द्वारा उसकी व्याख्या की गई है। स्वास्तिकी और नेसृष्टिकी क्रिया की व्याख्या दोनों (तत्त्वार्थवातिक और स्थानांगवृत्ति) में समान नहीं है। स्थामांगवृत्ति के अनुसार स्वहस्तक्रिया का अर्थ है-अपने हाथ से निष्पन्न किया। वृत्तिकार ने नेसृष्टिकीक्रिया के दो अर्थ किए हैं---फेंकना और देना। १. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५: अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभिढयति यथा साधु करोषीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। २, स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६ : दृष्टेर्जाता दृष्टिजा अथवा दृष्टं-दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिका-दर्शनार्थ या गतिक्रिया, दर्शनाद् वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका वा, तथा 'पुट्ठिया चेव' त्ति पृष्टि:-पृच्छा ततो जाता पृष्टिजा प्रश्नजनितो व्यापारः, अथवा पृष्टं-प्रश्नः वस्तु वा तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिकेति, अथवा स्पृष्टि: स्पर्शनं ततो जाता स्पृष्टिजा, तथैव स्पष्टिकाऽपीति । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५: रागार्दीकृतत्वात् प्रमादिनः रमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शनक्रिया । प्रमादवशात् स्पृष्टव्यसञ्चेतनानुबन्धः स्पर्शन किया। ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५: अपूर्वाधिकरणोत्पादनात् प्रात्ययिकी क्रिया। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६ : समन्तात्-सर्वत उपनिपातो-जनमीलकस्तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपातिकी। ६. तत्त्वार्थवातिक, ६।५: स्त्रीपुरुषपशुसंपातिदेशे अन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपात क्रिया। ७. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६ : कस्यापि षण्डो रूपवानस्ति तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तो पनिपातिकीति । ८. तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति, ६।६: समन्तानुपातक्रिया स्थण्डिलादो भक्तादित्याग क्रिया । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६: स्वहस्तेन निर्वत्ता स्वाहस्तिको। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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