________________
ठाणं (स्थान)
१४६
स्थान २ : टि० १२६-१३१
जो घर सबसे पहले आते हैं, वे अतियानगृह कहलाते हैं। प्राचीनकाल में प्रवेश और निर्गम के द्वार भिन्न-भिन्न होते थे। ये घर प्रवेश-द्वार के समीपवर्ती होते थे। अलिब और सनिष्प्रवात
वृत्तिकार ने इनका कोई अर्थ नहीं किया है। उन्होंने यह सूचना दी है कि इनका अर्थ रूढ़ि से जान लेना चाहिए।'
अवलिव का दूसरा प्राकृतरूप 'ओलिब' हो सकता है। दीमक का एक नाम ओलिभा है। यदि वर्णपरिवर्तन माना जाए तो अवलिब का अर्थ दीमक का ढह हो सकता है और यदि पाठ-परिवर्तन की सम्भावना मानी जाए तो ओलिंद पाठ की कल्पना की जा सकती है । इसका अर्थ होगा बाहर के दरवाजे का प्रकोष्ठ । अतियानगृह और उद्यानगृह के अनन्तर प्रकोष्ठ का उल्लेख प्रकरण-संगत भी है। सनिष्प्रवात
सणिप्पवाय के संस्कृत रूप दो किए जा सकते हैं१. शनैःप्रपात। २. सनिष्प्रवात ।
शनैःप्रपात का अर्थ धीमी गति से पड़ने वाला झरना और सनिष्प्रवात का अर्थ भीतर का प्रकोष्ठ (अपवरक) होता है। प्रकरणसंगति की दृष्टि से यहां सनिष्प्रवात अर्थ ही होना चाहिए। अभिधानराजेन्द्र में 'सण्णिप्पवाय' पाठ मिलता है। इसका अर्थ किया गया है-संज्ञी जीवों के अवपतन का स्थान । यदि 'सण्णि' शब्द को देशी भाषा का शब्द मानकर उसका अर्थ गीला किया जाए तो प्रस्तुत पाठ का अर्थ गीलाप्रपात भी किया जा सकता है।
१२६ (सू० ३६६)
वेदना दो प्रकार की होती है-आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी । अभ्युपगम का अर्थ है-अंगीकार। हम सिद्धान्ततः कुछ बातों का अंगीकार करते हैं । तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, किन्तु अभ्युपगम के कारण की जाती है । तपस्या काल में जो वेदना होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है, स्वीकृत वेदना है।
उपक्रम का अर्थ है-कर्म की उदीरणा का हेतु । शरीर में रोग होता है, उससे कर्म की उदीरणा होती है, इसलिए वह उपक्रम है-कर्म की उदीरणा का हेतु है। उपक्रम के निमित्त से होने वाली वेदना को औपक्रमिकी वेदना कहा जाता है।'
१३० (सू० ४०३)
___ आत्मा का स्वरूप कर्म परमाणुओं से आवृत्त रहता है। उनके उपशम, क्षय-उपशम और क्षय से वह (आत्मस्वरूप) प्रकट होता है।
क्षय और उपशम ये दोनों स्वतन्त्र अवस्थाएं हैं । क्षय-उपशम में दोनों का मिश्रण है। इसमें उदयप्राप्त कर्म के क्षय और उदयप्राप्त का उपशम ये दोनों होते हैं, इसलिए क्षय-उपशम कहलाता है। इस अवस्था में कर्म के विपाक की अनुभूति नहीं होती।
१३१ (सू० ४०५)
जो काल उपमा के द्वारा जाना जाता है, उसे औपमिक काल कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है--पल्योपम और
१. स्थानांगवत्ति, पत्र ८३:
अवलिंबा सणिप्पवाया य रूढितोऽवसेया इति । २. पाइयसहमहष्णवो। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८४ :
अभ्युपगमेन-अङ्गीकरणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा
आभ्युपगमिकी तया-शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदनयापीडया उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन नित्ता तत्र वा भवा
औपक्रमिकी तया-ज्वरातीसारादिजन्यया । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ८५।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org