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ठाणं (स्थान)
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स्थान २: सूत्र ४१३-४१८
४१३. दो मरणाई 'समणेणं भगवता द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण ४१३. ये दो-दो प्रकार के मरण श्रमण निम्रन्थों
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नो नित्यं वणिते के लिए श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा णो णिच्चं वणियाइं णो णिच्चं नो नित्यं कीर्तिते नो नित्यं उक्ते नो कभी भी वणित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित कित्तियाइं णो णिच्चं बुइयाइं नित्यं प्रशस्ते नो नित्यं अभ्यनुज्ञाते और अनुमत नहीं है। किन्तु शील-रक्षा णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं भवतः । कारणे पुनः अप्रतिक्रुष्टे, आदि प्रयोजन होने पर वे अनुमत भी हैंअब्भणुण्णायाइं भवंति । कारणे तद्यथा-वैहायसञ्चैव,
वैहायस–फांसी लेकर मरना। पुण अप्पडिकुट्ठाई, तं जहा- गृद्धस्पृष्टञ्चैव ।
गृद्धस्पृष्ट-कोई व्यक्ति हाथी आदि वेहाणसे चेव, गिद्धप? चेव।
बृहत्काय वाले जानवरों के शव में प्रवेश कर शरीर का व्युत्सर्ग करता है, वहां गीध आदि पक्षी शव के साथ-साथ उस शरीर को भी नोंच डालते हैं। इस प्रकार
उसका मरण होता है। ४१४. दो मरणाई समणणं भगवया द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण ४१४. श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण
महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणिते नित्यं । श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा सदा णिच्चं वणियाइं 'णिच्चं कीर्त्तिते नित्यं उक्ते नित्यं प्रशस्ते नित्यं वणित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और कित्तियाइं णिच्चं बुइयाइं णिच्चं अभ्यनुज्ञाते भवतः, तद्यथा
अनुमत हैंपसत्थाई णिच्चं अन्भणुण्णाताई प्रायोपगमनञ्चैव,
प्रायोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान । भवंति, तं जहा
भक्तप्रत्याख्यानञ्चैव। पाओवगमणे चेव,
भत्तपच्चक्खाणे चेव। ४१५. पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं प्रायोपगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ४१५. प्रायोपगमन दो प्रकार का होता हैजहा—णीहारिमे चेव, निर्हारि चैव, अनिर्हारि चैव ।
निर्हारि, अनिर्हारि। अणीहारिमे चेव। नियम अप्रतिकर्म।
प्रायोपगमन नियमतः अप्रतिकर्म होता है। णियमं अपडिकम्मे। ४१६. भत्तपच्चक्खा
भक्तप्रत्याख्यानं द्विविधं प्रज्ञप्तम, ४१६. भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का होता हैतं जहाणीहारिमे चेव, तद्यथा
नियरि, अनिर्हारि। अणीहारिमे चैव। निर्हारि चैव, अनिर्हारि चैव।
भक्तप्रत्याख्यान नियमतः सप्रतिकर्म होता णियमं सपडिकम्मे। नियम सप्रतिकर्म।
लोग-पदं ४१७. के अयं लोगे?
जीवच्चेव, अजीवच्चेव । ४१८. के अणंता लोगे?
जीवच्चेव, अजीवच्चेव ।
लोक-पदम् को यं लोकः? जीवाश्चैव, अजीवाश्चैव। के अनन्ता लोके? जीवाश्चैव, अजीवाश्चैव।
लोक-पद ४१७. भंते ! यह लोक क्या है ?
जीव और अजीव ही लोक है। ४१८ भंते ! लोक में अनन्त क्या है ?
जीव और अजीव।
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