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________________ ठाणं (स्थान) ५५३ स्थान ५: सूत्र ३०-३४ किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, कृष्णं, नीलं, लोहितं, हारिद्रं, शुक्लं। १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुक्किल्ले। तिक्तं, कटुकं, कषायं, अम्लं, मधुरम् । ५. शुक्ल । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, १. तिक्त, २. कटुक, ३. कषाय, ४. अम्ल, महुरे। ५. मधुर। ३०. कम्मगसरीरे पंचवण्णे पंचरसे कर्मकशरीरं पञ्चवर्ण पञ्चरसं प्रज्ञप्तम्, ३०. कर्मक शरीर पांच वर्ण तथा पांच रस पण्णत्ते, तं जहातद्यथा वाला होता हैकिण्हे, णोले, लोहिते, हालिद्दे, कृष्णं, नील, लोहितं, हारिद्रं, शुक्लं । १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. पीत, सुकिल्ले। तिक्त, कटुकं, कषायं अम्लं, मधुरम् । ५.शुक्ल । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, १. तिक्त, २. कटक, ३. कषाय, ४. अम्ल, महुरे। ५. मधुर। ३१. सव्वेविणं बादरबोदिधरा कलेवरा सर्वेपि बादरबोन्दिधराणि कलेवराणि ३१. बादर-स्थलाकार शरीर को धारण करने पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा अट्ठ- पञ्चवर्णानि पञ्चरसानि द्विगन्धानि वाले सभी कलेवर पांच वर्ण, पांच रस, फासा। अष्ट स्पर्शानि। दो गन्ध तथा आठ स्पर्श वाले होते हैं। तित्थभेद-पदं तीर्थभेद-पदम् तीर्थभेद-पद ३२. पंचर्चाह ठाणेहि पुरिम-पच्छिमगाणं पञ्चभिः स्थानः पूर्व-पश्चिमकानां ३२. प्रथम तथा अन्तिम तीर्थकर के शासन में जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा- जिनानां दुर्गमं भवति, तद्यथा.... पांच स्थान दुर्गम होते हैं.... दुआइक्खं, दुविभज्ज, दुपस्सं, दुराख्येयं, दुर्विभाज्यं, दुर्दर्श, दुस्तितिक्षं, १. धर्म-तत्त्व का आख्यान करना, दुतितिक्खं, दुरणुचरं। दुरनुचरम् । २. तत्त्व का अपेक्षादृष्टि से विभाग करना, ३. तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना, ४. उत्पन्न परीषहों को सहन करना, ५. धर्म का आचरण करना। ३३. पंचहि ठाणेहि मज्झिमगाणं पञ्चभिः स्थानः मध्यमकानां जिनानां ३३. मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शासन में पांच जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा- सुगमं भवति, तद्यथा-- स्थान सुगम होते हैंसुआइक्खं, सुविभज्ज, सुपस्सं, स्वाख्येयं, सुविभाज्य, सुदर्श, सुतितिक्षं, १. धर्म-तत्त्व का आख्यान करना, सुतितिक्खं, सुरणुचरं। स्वनुचरम् । २. तत्त्व का अपेक्षादृष्टि से विभाग करना, ३. तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना, ४. उत्पन्न परीषहों को सहन करना, ५. धर्म का आचरण करना। अब्भणुण्णात-पदं अभ्यनुज्ञात-पदम् अभ्यनुज्ञात-पद ३४. पंच ठाणाई समणेणं भगवता पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महा- ३४. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निम्रन्थों महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं वीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वणि- के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किए हैं, णिच्चं वण्णिताई णिच्च कित्तिताई तानि नित्यं कीर्तितानि नित्यं उक्तानि कीर्तित किए हैं, व्यक्त किए हैं, प्रशंसित णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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