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________________ स्थान ७ : सूत्र ४८ ठाणं (स्थान) ७२८ काकस्सरमणुणासं, काकस्वरं अनुनासं, च होंति गेयस्स छद्दोसा॥ च भवन्ति गेयस्य षड्दोषाः ॥ ६. पुण्णं रत्तं च अलंकियं, ६. पूर्ण रक्तं च अलंकृतं, च वत्तं तहा अविधुटुं। च व्यक्तं तथा अविघुष्टम् । मधुरं समं सुललियं, मधुरं समं सुललितं, अट्ठ गुणा होति गेयस्स ॥ अष्टगुणाः भवन्ति गेयस्य ॥ ७. उर-कंठ-सिर-विसुद्धं, ७. उर:-कण्ठ-शिरो-विशुद्धं, च गिज्जते मउय-रिभिअ-पदबद्धं। च गीयते मदुक-रिभित-पदबद्धम् ।' समतालपदुक्खेवं, समतालपदोत्क्षेपं, सत्तसरसीहरं गेयं ।। सप्तस्वरसीभरं गेयम॥ ८. जिद्दोसं सारवंतं च, ८ निर्दोष सारवन्तं च, हेउजुत्त मलंकियं । हेतुयुक्त मलंकृतम् । उवणीतं सोवयारंच, उपनीतं सोपचारं च, मितं मधुर मेव य॥ मितं मधुरमेव च । ६. सममद्धसमं चेव, ६. सममर्धसमं चैव, सव्वत्थ विसमं च जं। सर्वत्र विषमं च यत्। तिणि वित्तप्पयाराई, त्रयो वृत्तप्रकारा:, चउत्थं णोपलब्भती। चतुर्थो नोपलभ्यते ।। १०. सक्कता पागता चेव, १०. संस्कृता प्राकृता चैव, दोणि य भणिति आहिया। द्वे च भणिती आहृते। सरमंडलंमि गिज्जते, स्वरमण्डले गीयमाने, पसत्था इसिभासिता॥ प्रशस्त ऋषिभाषिते॥ ११. केसी गायति मधरं? ११. कीदृशी गायति मधुरं ? केसि गायति खरंच रुक्खं च? कीदृशी गायति खरं च रूक्षञ्च ? केसी गायति चउरं? कीदृशी गायति चतुरं? केसि विलंबं ? दुत केसी? कीदृशी विलम्ब ? द्रुतं कीदृशी? विस्सरं पुण केरिसी? विस्वरं पुनः कीदृशी? १२. सामा गायइ मधुरं, १२. श्यामा गायति मधुरं, काली गायइ खरंच रुक्खं च। काली गायति खरञ्च रूक्षञ्च। गोरी गायति चउरं, गौरी गायति चतुरं, काण विलंब, दुतं अंधा॥ काणा विलम्बं, दूतं अन्धा ॥ विस्सरं पुण पिंगला। विस्वरं पुनः पिङ्गला। १३. तंतिसमं तालसम, १३. तन्त्रीसमं तालसम, पादसमं लयसमं गहसमं च।। पादसमं लयसमं ग्रहसमं च। २. रक्त—गाए जाने वाले राग से परिष्कृत होना। ३. अलंकृत-विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना। ४. व्यक्त--स्पष्ट स्वर वाला होना। ५. अविघुष्ट-नियत या नियमित स्वरयुक्त होना। ६. मधुर-मधुर स्वरयुक्त होना। ७. सम-ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना। ८. सुकुमार-ललित, कोमल-लययुक्त होना। गीत के ये आठ गुण और है१. उरोविशुद्ध-जो स्वर वक्ष में विशाल होता है। २. कण्ठविशुद्ध-जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता। ३. शिरोविशुद्ध-जो स्वर सिर से उत्पन्न होकर भी नासिका से मिश्रित नहीं होता। ४. मृदु---जो राग कोमल स्वर से गाया जाता है। ५. रिभित-घोलना-बहुल आलाप के कारण खेल-सा करते हुए स्वर। ६. पदबद्ध --गेय पदों से निबद्ध रचना। ७. समताल पदोत्क्षेप-जिसमें ताल, झांझ आदि का शब्द और नर्तक का पादनिक्षेप–ये सब सम हों-एक दूसरे से मिलते हों। ८. सप्तस्वरसीभर—जिसमें सातों स्वर तन्त्री आदि के सम हों। गेयपदों के आठ गुण इस प्रकार हैं१. निर्दोष----बत्तीस दोष रहित होना। २. सारवत्-अर्थयुक्त होना । ३. हेतुयुक्त--हेतुयुक्त होना। ४. अलंकृत-काव्य के अलंकारों से युक्त होना। ५. उपनीत-उपसंहार युक्त होना। ६. सोपचार--कोमल, अविरुद्ध और अलज्जनीय का प्रतिपादन करना अथवा व्यंग या हंसी युक्त होना। ७. मित-पद और उसके अक्षरों से परिमित होना। ८. मधुर-शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की दृष्टि से प्रिय होना। वृत्त--छन्द तीन प्रकार का होता है१. सम-जिसमें चरण और अक्षर सम हों-चार चरण हों और उनमें लघु-गुरु अक्षर समान हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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