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________________ ठाणं (स्थान) ५८२ स्थान ५: सूत्र ११६-१२४ ११६. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- ११६. क्रिया पांच प्रकार की हैजहा दृष्टिजा, पृष्टिजा, प्रातित्यिकी, १. दृष्टिजा, २. पृष्टिजा, ३. प्रातित्यिकी, दिट्ठिया, पुडिया, सामन्तोपनिपातिकी, स्वास्तिकी। ४. सामंतोपनिपातिकी, ५. स्वाहस्तिका। पाडुच्चिया, सामंतोवणिवाइया, साहत्थिया। १२०. एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवं नैरयिकाणां यावत् वैमानिकानाम्। १२०. सभी दण्डकों में ये पांचों क्रियाएं होती हैं। १२१. पंच किरियाओ पण्णताओ, तं पञ्च क्रिया: प्रज्ञप्ताः, तदयथा १२१. क्रिया पांच प्रकार की है। जहा नैसृष्टिकी, आज्ञापनिका, वैदारणिका, १. नैसृष्टिकी, २. आज्ञापनिकी, सत्थिया, आणवणिया, अनाभोगप्रत्यया, अनवकाङ्क्षप्रत्यया । ३. वैदारणिका, ४. अनाभोगप्रत्यया, वेयारणिया, अणाभोगवत्तिया, एवं यावत् वैमानिकानाम् । ५. अनवकांक्षप्रत्यया। अणवकंखवत्तिया। सभी दण्डकों में ये पाँचों क्रियाएं होती एवं जाव वेमाणियाणं। १२२. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं पञ्च क्रिया: प्रज्ञप्ताः, तदयथा_ १२२. क्रिया पांच प्रकार की है। जहा प्रेय:प्रत्यया, दोषप्रत्यया, प्रयोगक्रिया, १. प्रेयस्प्रत्यया, २. दोपप्रत्यया, पेज्जवत्तिया, दोसवत्तिया, समुदानक्रिया, ऐपिथिकी। ३. प्रयोगक्रिया---गमनागमन की क्रिया, पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, ४. समुदानक्रिया- मन, वचन और काया ईरियावहिया। की प्रवृत्ति। ५. ईर्यापथिकी--वीतराग एवं-मणुस्साणवि। एवम्-मनुष्याणामपि। शेषाणां के मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से सेसाणं णत्थि। नास्ति। होने वाला पुण्य-बंध। ये क्रियाएं मनुष्यों के ही होती हैं, शेष दण्डकों में नहीं। परिणा-पदं परिज्ञा-पदम् परिज्ञा-पद १२३. पंचविहा परिष्णा पण्णत्ता, तं पञ्चविधा परिज्ञा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १२३. परिज्ञा परित्याग] पांच प्रकार की जहाउपधिपरिज्ञा, उपाश्रयपरिज्ञा, होती हैउवहिपरिणा, उवस्सयएरिण्णा, कपायपरिज्ञा, योगपरिज्ञा, १. उपधिपरिज्ञा, २. उपाश्रयपरिज्ञा, कसायपरिणा, जोगपरिणा, भक्तपानपरिज्ञा। ३. कषायपरिज्ञा, ४. योगपरिज्ञा, भत्तपाणपरिणा। ५. भक्तपानपरिज्ञा। ववहार-पदं व्यवहार-पदम् व्यवहार-पद १२४. पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा- पञ्चविधः व्यवहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा—१२४. व्यवहार पांच प्रकार का होता है ... आगमे, सुते, आणा, धारणा, आगमः, श्रुतं, आज्ञा, धारणा, जीतम्। १. आगम, २.श्रुत, ३. आज्ञा, जीते। ४. धारणा, ५. जीत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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