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ठाणं (स्थान)
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५३ ( सू० २५३ )
प्रस्तुत सूत्र में अतिशायी ज्ञान दर्शन की उपलब्धि की योग्यता का निरूपण किया गया है। उसकी उपलब्धि के सहायक तत्त्व दो हैं—शारीरिक दृढ़ता और अनासक्ति । और उसके बाधक तत्त्व भी दो हैं- शारीरिक कृशता और आसक्ति । इन्हीं के आधार पर प्रस्तुत चतुर्भङ्गी की रचना की गई है।
साधारण नियम के अनुसार अतिशायी ज्ञान-दर्शन की उपलब्धि उसी व्यक्ति को हो सकती है, जो दृढ़-शरीर और देहासक्ति से मुक्त होता है, किन्तु सामग्री-भेद से इसमें परिवर्तन हो जाता है, जैसे-
स्थान ४ : टि० ५३-५७
एक मनुष्य अस्वस्थ या तपस्वी होने के कारण शरीर से कृश है, किन्तु देहासक्त नहीं है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञानदर्शन को प्राप्त हो जाता है।
एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण शरीर से दृढ़ है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त नहीं होता ।
एक मनुष्य स्वस्थ होने के कारण शरीर से दृढ़ है और देहासक्त भी नहीं है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त होता है।
एक मनुष्य अस्वस्थ होने के कारण शरीर से कृश है, किन्तु देहासक्त है, इसलिए वह अतिशायी ज्ञान-दर्शन को प्राप्त नहीं होता ।
जिसमें देहासक्ति नहीं होती, उसे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त हो जाता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ । जिसमें देहासक्ति होती है, उसे अतिशायी ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं होता, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ | इसकी व्याख्या दूसरे नय से भी की जा सकती है। प्रथम व्याख्या में प्रत्येक भंग का दो-दो व्यक्तियों से सम्बन्ध है । इस व्याख्या में प्रत्येक भंग का संबंध एक व्यक्ति की दो अवस्थाओं से होगा, जैसे
कोई व्यक्ति कृश शरीर होता है तब उसमें मोह प्रबल नहीं होता, देहासक्ति सुदृढ़ नहीं होती, प्रमाद अल्प होता है, किन्तु जब वह दृढ शरीर होता है तब मांस उपचित होने के कारण उसका मोह बढ़ जाता है, देहासक्ति प्रबल हो जाती है। और प्रमाद बढ़ जाता है। इस कोटि के व्यक्ति के लिए प्रथम भंग है ।
कोई व्यक्ति दृढ शरीर होता है, तब वह अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का ध्यान आदि साधना पक्षों में नियोजन करता है, मोह विलय के प्रति जागरूक रहता है, किन्तु जब वह कृश शरीर हो जाता है, तब अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का साधनापक्षों में वैसा नियोजन नहीं कर पाता। इस कोटि के व्यक्ति के लिए दूसरे भंग की रचना है। प्रथम कोटि के व्यक्ति का शरीर के कृश होने पर मनोबल दृढ़ होता है और शरीर के दृढ़ होने पर वह कृश हो
जाता है।
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५४-५७ विवेक, व्युत्सर्ग, उञ्छ, सामुदानिक (सू० २५४ )
प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैंविवेकशरीर और आत्मा का भेद ज्ञान ।
दूसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल शरीर के दृढ़ होने पर दृढ़ होता है और शरीर के कृश होने पर कुश हो जाता है। तीसरी कोटि के व्यक्ति का मनोबल दृढ़ ही रहता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ ।
चौथी कोटि के व्यक्ति का मनोबल कृश ही होता है, भले फिर उसका शरीर कृश हो या दृढ़ ।
व्युत्सर्ग- - शरीर का स्थिरीकरण, कायोत्सर्ग मुद्रा ।
उञ्छ— अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लिया जाने वाला भक्त पान ।
सामुदानिक समुदान का अर्थ है - भिक्षा ! उसमें प्राप्त होने वाले को सामुदानिक कहा जाता है।
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